रात के ढाई बजे थे। खिड़की से चाँद की हल्की रौशनी कमरे में उतर रही थी। रूहानी अपने बिस्तर पर पसीने-पसीने उठी। दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था, जैसे अभी छाती से बाहर निकल आएगा। फिर वही सपना...एक वीरान हवेली... दीवारों पर फटी हुई तस्वीरें, धूल जमीं किताबें, और आँगन में रखा टूटा-सा झूला। और उस झूले के पास खड़ा एक लड़का, जिसकी आंखों में बरसों का इंतज़ार था।वो हर बार एक ही नाम लेकर पुकारता था –"ज़ररीन..."रूहानी ने आईने में खुद को देखा। वो जानती थी उसका नाम ज़ररीन नहीं है। लेकिन जब भी कोई ये नाम लेता है,