मंदिर शांत था। काल-राज की गूँज अब बीते युग की परछाई बन चुकी थी।वरुण की हथेली में अब भी वह प्राचीन किताब थी—जिसका हर पन्ना एक ब्रह्मांड खोलता था।पर जैसे ही उसने आख़िरी पन्ना बंद किया, ज़मीन काँप उठी।अचानक, मंदिर के बीचोंबीच एक चक्र खुला—न समय में, न स्थान में।एक आवाज़ आई—**"तुमने एक संतुलन बिगाड़ा है, उत्तराधिकारी। अब तुम्हें जवाब देना होगा।"**वरुण की आँखों के आगे सब कुछ घूमने लगा।वो गिरा... जैसे समय में नहीं, बल्कि *समय के परे* फिसल रहा हो।जब होश आया, वो एक नीले-सुनहरे मैदान में था—जहाँ हर चीज़ ठहरी हुई थी। पक्षी हवा में जमे हुए,