भाग 3 – परछाई का सचकमरे की हवा भारी हो गई थी। आरव की धड़कनों की आवाज़ जैसे पूरी हवेली में गूंज रही थी। वह घुटनों के बल गिर पड़ा। वो परछाई अब उसकी तरफ बढ़ रही थी—हर कदम पर फ़र्श की लकड़ी चीख रही थी।"कौन... कौन हो तुम?" आरव ने कांपती आवाज़ में पूछा।परछाई मुस्कराई, "मैं वो हूँ... जो तुम बन सकते हो — अगर तुम किताब के आदेशों को नहीं मानते। मैं हर उस इंसान की परछाई हूँ जिसने इसे नज़रअंदाज़ किया।"आरव की आँखें फैल गईं। मतलब ये परछाई… उसकी अपनी हो सकती थी?"तो क्या मैं भी...?""हाँ। तुम