महोत्सव की भीड़ धीरे-धीरे छंटने लगी थी, लेकिन आदित्य की आँखों में अब भी वही छवि बसी थी—संयोगिता, मंच के बीचों-बीच खड़ी, अपनी आवाज़ के जादू से सबको बाँधती हुई।वह अब भी सोच रहा था, "क्या यह सिर्फ एक संयोग था, या मेरी अधूरी कहानी का पहला अध्याय?" आदित्य इसी सोच में डूबा ही हुआ था कि तभी संयोगिता भीड़ के पीछे, एक पुरानी हवेली की सीढ़ियों पर, अकेले जाकर बैठ जाती है।उसके चेहरे पर अब मंच की मुस्कान नहीं थी। उसके लंबे काले बाल हल्की हवा में उड़ रहे थे। उसने अपनी डायरी खोली और कुछ लिखने लगी। उसकी