मैंने स्कूल से घर लौटते समय रोज की तरह इधर-उधर किसी से उस दिन भी बात न की। चुपचाप स्कूल के साइकिल स्टैंड पर अपनी साइकिल का टोकन जमा कराया, अपनी साइकिल उठाई और चतुर्दिक पवन-मापी गति के साथ घर पहुंचकर ही दम लिया । ’’आज इम्तिहान कैसा हुआ?’’ मां रोज की तरह घर के दरवाजे पर खड़ी थीं। ’’पेपर अच्छा था,’’ मैं हंसा। ’’मुझे दिखाओ,’’ मां ने मेरी साइकिल मेरे हाथ से लेकर गलियारे में टिका दी। ’’लो,’ ’ पसीने से तर हुई अपनी कमीज की जेब से मैंने वह आधा गीला पेपर मां की ओर बढ़ाया। ’’लाओ, बैग