भाग १ ... विनोद को फ़िल्में देखने का बहुत शौक़ था । उसका बस चलता, तो रोज़ एक फ़िल्म देख लेता । लेकिन तब, यानी १९७० के दशक में तो कई फ़िल्में छोटे शहरों और कस्बों तक में भी चार-छः हफ्ते चल ही जाती थीं, कुछ तो दस-बारह हफ़्ते भी । वैसे विनोद के लिए यह कोई अड़चन थी ही नहीं । फिल्म अगर बहुत ऊबाऊ न हो, तो दोबारा देख लेता, ठीक-ठाक हो, तो तिबारा, और बहुत धाँसू हो, तो फिर गिनती ही छूट जाती । असली चुनौती थी, टिकट के पैसों का बन्दोबस्त करना, जो बिल्कुल आसान नहीं