'बेरोजगार' : यथार्थवादी कविताओं का एक संग्रह

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#नींद "भगवान के लिए, बेकार! बेकार! का ये शोर बंद करो" ...वो अधेड़ युवक रात भर बड़बड़ाता है,सोये अपनी ख्वाहिशों की कब्र पे। #सपनें सपनें-जिनको पूरा होतेसोचने भर से,कभी रोमांच हो जाता था।वो सपनें, बढ़ती उम्र के साथएक-एक कर,मरती जाती हैं।अपने सपनों को यूं मरते देख,आदमी लगभग मर हीं जाता है।या फिर बचा रह जाता है- 'एक टूटा हुआ आदमी' #देशबंदी मालिक-मालिक, बाप-भैया करके गुजर गया एक और सप्ताह तब पता चला 'प्रधान ' ने भेजें हैं पैसे "तेरे पास ये कागज नहीं, वो कागज नहीं अपना पांच सौ निकलोगे कैसे? "पूरा दिन 'रू