मैं ढग-ढग उछलते सागर सा हूं, उसकी आंखों का तारा हूं मुझे रोक मत तू मेरी मंजिल से मैं पाषाण की तरह कठोर हुं! हिंद मेरी छवि हैं, मैं उस मां भारती का सपूत, अंबर को छु ने निकला हूं आज धरती से दूर निकला हूं तू रोकना पर मैं रुकूंगा नही किसी के आगे झुकूंगा नही, मैं थक कर विराम मांगू पर तू देना नहीं मै