विद्युत खुद भी नहीं जानता था कि प्रियमविधा उसे कहाँ मिलेगी... बस वह ''कहीं तो मिलेगी, कभी तो मिलेगी वाली " उम्मीद लेकर आगे बढ़ रहा था। वह निरंतर उस जंगल के पथरीले रास्तों पर आगे बढ़ रहा था... वास्तव में अगर उसके पैरों की भी जबान होती तो वे उसे, उसकी इस निर्दयता पर भर भर कर गालियां बक रहे होते.... आखिरकार उसने अपने पैरों पर रहम खाया और कुछ देर सुस्ताने की सोची। एक पेड़ पर अपनी हथेलियां टिकाते हुए वह खड़ा ही हुआ था कि उसने अपनी हथेलियों पर कुछ लचीली ,चिपचिपी- सी हलचल महसूस की... जैसे