पृथ्वी के केंद्र तक का सफर - 24

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चैप्टर 24 लापता। किसी भी इंसानी भाषा में मेरे दुःख-दर्द व्यक्त नहीं हो सकते थे। मैं जैसे ज़िंदा दफन था; अब धीरे-धीरे भूख प्यास से तड़पकर मरने के अलावा और कोई विकल्प नहीं दिख रहा था।वास्तविकता में मैं उन सूखे और सख्त चट्टानों पर रेंग रहा था। मैंने इससे पहले इतनी शुष्कता नहीं झेली थी।लेकिन मैंने खुद से जानना चाहा कि मैंने उस धारा का साथ कैसे छोड़ दिया? इसमें कोई दो राय नहीं कि उसे इसी गलियारे से गुज़रना था जिसमें मैं अभी हूँ। अब मुझे ध्यान आया कि क्यों मुझे अपने साथियों की आवाज़ नहीं सुनायी दे रहे