दरिंदगी से इंसाफ़...

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दुख दर्द और जख्मी जिस्म ,तड़प रही रूह दुनिया के सामने,जूझ रहा कायनात का हर वक़्त,नन्ही कली को कैद बना रख घर ,बिखरा हुआ हर एक शक्श जहा से,निखर जाए जो लड़ा जाए इस सोच पर,सुनना एक दर्दनाक कहानी,जो हर बार बनती और दफन हो जाती है।जिस्म के भूखे नंगे आज खुले शहर में,घूम रहा हर शहर में गंदी नजर लड़िकयों में,चहेरा देख के कपड़े से नजरे बिगाड़ता,पहचाना नहीं जाता हर समाज में छुपा राक्षाशी रूप में।निकल नहीं सकी फुल जैसी कली,घर के आंगन में घुम ना सकी ना खेल सकी,बंध कर दिया दुनिया ने कैद कमरों में,क्यू हुआ ऐसा