देश और दुनिया की खबरें पढ़कर, जब भी मन में व्यथा बढ़ती है; शब्दों को ढूँढती है मेरी धड़कन, और उँगलिया फ़ोन लिपट कर चलती है। आपके पेशे ए नज़र है कुछ छोटी ग़ज़लें जो की सांस्कृतिक, सामाजिक, ऐतिहासिक और राजनैतिक परिपेक्ष्य में मेरे द्वारा रची गयी है। इनका उदेश्य किसी व्यक्ति अथवा समुदाय की भी भावनाओं को आहत करना नई है। यदि ऐसा होता है तो मई आपका क्षमपरार्थी हूँ। १. कविता शीर्षक: जीयो और जीने दो: पंथ - सम्प्रदाय है अनेक, ख़ुद मान ले जो तेरा फ़साना है। छल कपट या ज़बरदस्ती से मगर, किसी को भी ना मनाना है।।१।।लाउड-स्पीकर बजा बजा के, किसी को भी ना जगाना है। जाग ने वाले स्वयं जागेंगे, तुजे क्यों बीच में टांग अड़ाना है।।२।।सत्य सब का अपना अलग होता है, अपने अंदर ही उसे सम्भालना है।जो तू कहे वही सही ऐसी, मान ले शून्य सम्भावना है।।३।।ज़हर नफ़रतों का घोलना है बड़ा आसान, मुश्किल मानवतावाद फैलाना है। धरती स्वर्ग-जन्नत बन जाए, बस, जीयो और जीने दो का मार्ग अपनाना है।।४।। २. कविता शीर्षक: देश की व्याख्या देश की परिभाषा लोग है, या फिर भूभाग, या फिर सांस्कृतिक विरासत? लोग तो आते जाते रेहते है,ऐसे ही नहीं मिटती पूर्वजों की असलियत। चंग़ेज़ जैसा जुल्म ढाना पड़ता है, या फिर करनी पड़ती है जिन्ना वाली सियासत। इतिहास को जुठलाया भी जा सकता है, फैलाके कट्टरवादी नफ़रत। लेकिन ये भूमि अजरामर है, इसे मिटाने की क़िस्में है कुव्वत? प्रजासत्ताक दिवस की बधाई है। मुबारक हो बिके हुए मतों से हासिल हूकूमत।३. कविता शीर्षक: अत्याचारों के भी इश्तिहार देने पड़ते है मार दिया कश्मीरी पंडितों को पंडितायनो का बलात्कार किया। ज़िंदा जलाया कारसेवकों को बम्बई पर अत्याचार किया। ना जाने कितने तोड़े मंदिर और गुरुद्वारे कितनो को धर्मपरिवर्तन को लाचार किया। उनके जुल्म क्यू ना कोई देख पाया? क्यों हमने ही इस बर्बरता का ठीक से ना प्रचार किया? क्यों हम ना क़ीमत लगा पाए बिकाऊ मीडिया की? क्यों हमने चुपचाप सब स्वीकार किया? क्यों ना हमने की नुमाइश इनके जुल्मों सितम की क्यू ना हमने इनको नंगा भरे बाज़ार किया? हमने तो सिर्फ़ शरण दी जो इनसे थे परेशान जमाने ने हमारा ही क्यों तिरस्कार किया? ४. कविता शीर्षक: शरीफ़स ओफ़ मोर्डन वर्ल्डभूल गए वो सारी बातें इतिहास सारा गवारा करके के दिल किसी का ना दुखे, चुप बैठे रहे अपना खासारा करके रेहमत बटोरने की अदा तो कोई इन शरीफ़ों से सीखे इल्ज़ाम भी हम ही पे लगाया कत्लेआम हमारा करके। ५. कविता शीर्षक: सहनशक्ति के परिणाम तू ना फ़ारसी रह पाएगा तेहरान में ना तू बौद्ध रह पाएगा तक्षशिला धाम में ना रहेंगे जैन-धाम सिंध और बलोचिस्तान में ना बचेंगे सिख पंजाबी पाकिस्तान में। हिंदू सनातन धर्म की तो बात भी मत कर बापू मंदिर परिवर्तित होंगे शौच स्थान में बहु बेटियाँ अगवा होंगी जाड़ेजा कोई ग़ैर हिंदू ना खड़ा उन नारियों के सम्मान में। कोई ना कुछ कहेगा इन तथाकथित शांति के दूतों कोपर्दा डालते रहेंगे सारे वामपंथी इनकी काली करतूतों को भेड़िए आइंगे भेड़ों की खाल पहन सर्वनाश करने बोटियाँ तेरी खिलायी जाएगी तेरी ही गली के कुत्तों को। ६. कविता