गीात क्ृष्ण विहारी लाल पांडेय घाट पर बैठे हुए हैं जो सुरक्षित लिख रहे वे नदी की अन्तर्कथाऐं, आचमन तक के लिए उतरे नहीं जो कह रहे वे खास वंशज हेैं नदी के, बोलना भी अभी सीखा है जिन्होने बन गये वे प्रवक्ता पूरी सदी के! और जिनने शब्द साधे कर रहे वे दो मिनट कुछ बोलने की प्रार्थनायें....... थी जरा सी चाह ऐसा भी नही ंथा आँख छोटी स्वप्न कुछ ज्यादा बड़े थे, बस यही चाहा कि सुख आयें वहां भी, जिस जगह हम आप सब