स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी (19)'शब्द-सहयोग की अनवरत कथा...'पूज्य पिताजी को दिन-रात लिखते-पढ़ते देखकर मैं बड़ा हुआ। मन में आता था कि उन्हीं की तरह कवि-लेखक बनूंगा। बाल्यकाल में इतना खिलंदड़ था कि लिखने-पढ़ने की राह पर पाँव धरता ही नहीं था। पिताजी पढ़ने-सिखाने को बुलाते तो जाना तो पड़ता, लेकिन थोड़ी ही देर में मेरे पूरे शरीर पर लाल चींटियाँ रेंगने लगतीं। पिताजी मेरी ऐंठन देखते तो मुझे मुक्ति दे देते। मैं बड़ी प्रसन्नता से भाग खड़ा होता। लेकिन किशोरावस्था तक आते-आते वृत्तियों ने राह बदली। जब आठवीं कक्षा में था, विद्यालय पत्रिका के लिए पहली छंदोबद्ध