स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी... (9)

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स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी (9)'कील गुर्रों' उर्फ़ काठ का घोड़ा... मेरे घर के सामने ही उनका घर था--भिन्न-मुखी ! मेरा घर पश्चिमाभिमुखी तो उनका उत्तराभिमुखी ! १२ वर्ष का चंचल बालक मैं, क्षण-भर में २० फ़ीट की सड़क लाँघकर उनके घर पहुँच जाता था। उस घर में निवास करती थीं दक्षिण-भारतीय एक सुघड़ ब्राह्मणी! ३५-३६ की उम्र रही होगी, दुबली पतली थीं, नासिका में अपेक्षाकृत बड़ा-सा सोने का आभूषण पहने रहती थीं--सामान्य रूप-स्वरूप की हँसमुख महिला! तेलुगुभाषिणी थीं, लेकिन वर्षों उत्तर भारत में व्यतीत करते हुए साफ़-सुथरी हिंदी भी धाराप्रवाह बोलनेलगी थीं। आज इतनी मुद्दत बाद उनका स्मरण