रक्तवन्या

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रक्तवन्या हृषीकेश सुलभ अजीब होती जा रही है केया दास। उसे अब अपने-आप से भय लगने लगा है। जंगल की ये रातें उसे तिलिस्मी लगती हैं। डरावनी। पूरे शरीर में सिहरन भर देने वाली रातें। केया दास करवटें बदलती है। बिस्तर पर छटपटाती है। सिरहाने जलने वाले लैम्प को लगातार घूरती है। तकिए में मुँह छिपा कर रोती है। रात-रात भर जागती रह जाती है केया दास। पहाड़ी के शीर्ष से गिरने वाले तीरथगढ़ के झरने का-सा शोर उसकी कोठरी में भर जाता है। दरभा घाटी में खड़े शाल-वृक्षों को झकझोर कर बहने वाली तूफ़ानी हवा के झोंके अयाचित मेहमान