बहीखाता - 35

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बहीखाता आत्मकथा : देविन्दर कौर अनुवाद : सुभाष नीरव 35 बाईपास इन्हें सामने देखकर मैं अवाक् रह गई। अंदर प्रवेश करते हुए उनकी तेज़ रुलाई फूट पड़ी। बोले - “साली यह भी कोई ज़िन्दगी है कि सिगरेट भी न पी सको।” रोते हुए बताने लगे कि कैसे उन्हें सिगरेट की तलब हुई, कैसे वह अपने वार्ड से बाहर आए और सड़क पर पड़े सिगरेट के टुकड़ों को उठाकर किसी से लाइटर मांगकर उन्हें पीने लगे। फिर अपने आप को लाहनतें दीं और अपनी ज़िद पर अस्पताल से सैल्फ डिस्चार्ज़ होकर आ गए। बंदिशों में बंधकर रहना इनकी फितरत में नहीं