किस्सा सन १८५७ की क्रांति के दिनों के आसपास की है. आगरा किले पर ईस्ट इंडिया कंपनी का कब्जा हो चुका था. वहां तमाम गुप्त रास्ते थे, ऐसे गलियारे, घुप्प अँधेरे में ढूंढ कर चलने वाले और खोज कर रास्ता बनाने वाले दरवाजे जो वाकई में भुतहा लगते थे. पर हमेशा लगता रहा कि भूत-वूत कुछ नहीं होता होगा. आवाजाही से सिर्फ चिमगादडों की चीं-चीं और इधर-उधर की फड़फड़ाहट, कुछ जंगली कबूतरों की गुटर-गूं और पास आने पर उनका उड़ जाना… बस इससे अधिक जीवंतता नहीं थी वहां. भूत क्या होते हैं, यह कोई कैसे जान सकता है, बशर्ते