एकांत का उजाला

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एकांत का उजाला-प्रितपाल कौर. जनसत्ता 2 अक्टूबर २०१६. पीछे मुड कर क्यूँ देखती हो? क्या है वहां? सिर्फ दर्द, परेशानियाँ...... जानती हूँ... चेहरे पर छाई रहने वाली हंसी कब की लुप्त हो चुकी थी. पीछे मुड कर नहीं देख रही थी बल्कि बार-बार पीछे घूमती गर्दन को खींच रही थी. मरोड़ रही थी कि सामने देखे. सामने जहाँ भविष्य ने एक बार फिर जन्म लिया है. टूटन और बिखराव से अनजान दूध पीता उसका शैशव फुर्ती से हाथ-पैर चलाता जल्दी-जल्दी परवान चढ़ना चाहता है. अपनी दुनिया खडी करना चाहता है. जहाँ आँखों पर झिल्लियाँ नहीं चढ़ाई जातीं, पैरों में नाप से छोटे जूते नहीं पहनाये जाते. जहाँ खुल के हंसने पर अंदेशों का हौव्वा नहीं दिखाया जाता, जहाँ हाथों को शिकंजों में नहेने कसा जाता, जहाँ दिमाग पर रंदा फेर कर कुंद करने का प्रयास सतत चलता नहीं रहता...