(1) ज्ञान और मोह दो राही चुप चाप चल रहे,ना नर दोनों एक समान,एक मोह था लोभ पिपासु ,औ ज्ञान को निज पे मान। कल्प गंग के तट पे दोनों,राही धीरे चले पड़े ,एक साथ थे दोनों किंतु, मन से दोनों दूर खड़े । ये ज्ञान को अभिमान कि,सकल विश्व हीं उसे ज्ञात था,और मोह की तृष्णा भारी, तुष्ट नहीं जो उसे प्राप्त था। मोह खड़ा था तट पे किंचित,फल फूलों की लेकर चाह,ज्ञान गड़ा था गहन मौन में ,अन्वेषित कर रहा प्रवाह। पास हीं गंगा कल कल बहती,अमर तत्व का लेकर दान,आ जाओ दोनों से कहती,अमर तत्व मैं करूँ प्रदान। बहती रहती जन्मों से मैं,दोनों जल