अनूप मुझे झिंझोड़ कर जगा रहे थे, मैं पसीना पसीना हो रही थी. आज फिर वही सपना आया था. मीलों दूर तक फैला पानी.. बीचों बीच एक भूतहा खंडहर और उस खण्डित इमारत में पत्थर का एक बुत... मैं हमेशा खुद को उस बुत के सामने खड़ा पाती हूँ.. मेरे देखते ही देखते वह बुत अपनी पत्थर की पलकें झपका कर एकदम आँखें खोल देता है... आँखों से चिंगारियां फूटने लगती हैं.. फिर वह लपट बनकर मेरी ओर आती हैं, एक अट्टहास के साथ... मैं पलटती हूँ और वह हँसी एक सिसकी में बदल जाती है... मैं