विचित्र चित्र - सिर्फ़ देखूँगा

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कभी लगता है इस रंगबिरंगी दुनिया में मैं अकेला हूँ,कभी लगता है उन रंगों में घुल गया हूँ,और कई चित्रों में उभर आया हूँ।माँ बाप का सहारा,बंधु बान्धवों का प्यारा,सखा-मित्रों का दुलारा।समय के साथ चित्रों का रंगहो गया बजरंगदोस्त से ज़्यादा विरोधी,माँ-बाप के मन का अवरोधी,समाज के बीच एक क्रोधी,विचित्र चित्र ,चरित्र हो गया मेरा। सच कहूँ बचपन में जिस रंग में रंगा था,वही रंग अब भी है,हाँ कुछ रंग मुझमें आ मिला,जो मेरा नहीं ,दूसरों ने मिलाया,और कूँची मेरे चित्र पर चलाया,मेरे चित्रों को बदरंग बनाया।दोष मेरा भी है -हर रंग में ढलने का प्रयास ,सर्वप्रिय बनने की कामना