आज शौचालय और पुरुष दिवस के एक साथ होने पर कई दिनों बाद लिखी हास्य कविता

शौचालय में बैठा पुरुष अक्सर ये सोचता है,
बदहजमी वाला क्या खाया था उसे खोजता है।

हींगोली, पुदीन हरा, ईनो में कौन है श्रेष्ठ,
हर दावत के बाद अध्ययन करता है यथेष्ट।

न छोले-भटूरे बिन सुबह है, न चावल बिना रात।
पानी भी दो घण्टे बाद पिएँ, ये भला क्या हुई बात।

ये चाउमीन, बर्गर, चाटवाले वाले यूँ भूखे मर जाएँगे,
गर काम की भागमभाग में हम इन्हें न खाएँगे।

मोमोज, समोसे का आखिर क्या है कुसूर,
आउटिंग के समय भला कैसे रहें इनसे दूर।

चाहें गैस का उत्पादन करता रहे हमारा शरीर,
वो खाना हम न छोड़ेंगे जिसमें होता खमीर।

क्या हुआ जो हो जाता है गड़बड़ हमारा पेट,
शौचालय झेल लेगा हमारे 'स्टूलों' का रेट।

जब कमरे के दस और रसोई के बीस चक्कर लगते हैं,
तो ये शौचालय क्या दो बार का भी हक नहीं रखते हैं।

सुबह के बाद दिन भर शौचालय में क्यों न हो रौनक,
गरिष्ठ खाना खाकर पुरुष बनते शौचालय के पूरक।

इन महिलाओं से क्या होगा जो पल-पल टोकती हैं,
ये मत खाओ, वो मत पियो कहकर रोकती हैं।

इनकी चले तो हो जाएँ शौचालय बिल्कुल बेकार,
हम पुरुष ही इसे दिन भर रखते हैं गुलजार।

शौचालय की सीट भी हमें देख खिल जाती है,
हमारे पीले उद्गारों में उसे खुशी मिल जाती है।

अजी शौचालय और पुरुष एक-दूसरे पर हैं निर्भर,
न सुनो नसीहतें किसी की खाओ थाली भर-भर।

शौचालय और पुरुष दिवस इसीलिए एक दिन मनाते हैं,
शौचालय की असली रौनक तो पुरुष ही कहलाते हैं।

प्रांजल सक्सेना
#महानपुर_के_नेता
#गाँव_वाला_अंग्रेजी_स्कूल

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Hindi Poem by Pranjal Saxena : 111764837

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