मंज़िल
जबसे इन आँखों ने एक ख्वाब देखा है,
तब से ये दिल बेचैन रहता है।
नई उमंग, नई ख्वाहिशें जागी है,
ज़िन्दगी को एक तरोताज़ा मंज़िल मिल गई है।
रोज़मर्रा की भाग दौड़ से हट के कुछ करना है,
अब तो मुझे एक नए मकसद के साथ जीना है।
मुश्किलें आएंगी ज़रूर, पर तु हौसला रख,
न झुक, न डर, न अपने मकसद से भटक।
कब, किसने ये वादा किया था?
फूलों की सेज बिछाए कोई बैठा होगा?
तू अपनी मंज़िल खुद तराश कर,
अंधेरी गुफाओं में खुद प्रकाश कर!
शिद्दत से जिस मक़ाम की तलाश थी,
खामोशी से जिस राह को ढूंढती रहती थी,
आज वो कलम की शक्ल में सामने आया,
अब तो मानो मैंने सारे जहाँ को पा लिया!
ख्वाबों और ख़यालों को जैसे नए पर मिल गए,
मुस्कुराहटों के लिए एक नई वजह ले आए।
अपनी किताबों में कई जीवन जी लिए मैंने,
अपने किरदारों में कई सपने पिरो लिए मैंने।
कल भी राही थी, आज भी मुसाफिर हूँ।
रुकना नहीं है मुझे, थकना मना है मुझे।
मंज़िल अभी दूर है…यही सोच कर,
आगे बढ़ते रहना है मुझे!
शमीम मर्चन्ट, मुंबई
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