❁ श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप ❁
सभी के लिए सनातन शिक्षा सभी भगवत गीता पढ़ने वालों को जय श्री कृष्णा जय श्री कृष्णा ब्रह्मदत्त त्यागी हापुड़ की तरफ से आप सभी का हार्दिक अभिनंदन है
आज का श्लोक --
अध्याय 02 : गीता का सार
कर्मण्यवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन |
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि || ४७ ||
कर्मणि– कर्म करने में; एव– निश्चय ही; अधिकारः– अधिकार; ते– तुम्हारा; मा– कभी नहीं; फलेषु– (कर्म) फलों में; कदाचन– कदापि; मा– कभी नहीं; कर्म-फल– कर्म का फल; हेतुः– कारण; भूः– होओ; मा– कभी नहीं; ते– तुम्हारी; सङ्गः - आसक्ति; अस्तु– हो; अकर्मणि– कर्म न करने में |
तुम्हें अपने कर्म (कर्तव्य) करने का अधिकार है, किन्तु कर्म के फलों के तुम अधिकारी नहीं हो | तुम न तो कभी अपने आपको अपने कर्मों के फलों का कारण मानो, न ही कर्म न करने में कभी आसक्त होओ |
तात्पर्यः यहाँ पर तीन विचारणीय बातें हैं – कर्म (स्वधर्म), विकर्म तथा अकर्म | कर्म (स्वधर्म) वे कार्य हैं जिनका आदेश प्रकृति के गुणों के रूप में प्राप्त किया जाता है | अधिकारी की सम्मति के बिना किये गये कर्म विकर्म कहलाते हैं और अकर्म का अर्थ है – अपने कर्मों को न करना | भगवान् ने अर्जुन को उपदेश दिया कि वह निष्क्रिय न हो, अपितु फल के प्रति आसक्त हुए बिना अपना कर्म करे | कर्म फल के प्रति आसक्त रहने वाला भी कर्म का कारण है | इस तरह वह ऐसे कर्मफलों का भोक्ता होता है |
जहाँ तक निर्धारित कर्मों का सम्बन्ध है वे तीन उपश्रेणियों के हो सकते हैं – यथा नित्यकर्म, आपात्कालीन कर्म तथा इच्छित कर्म | नित्यकर्म फल की इच्छा के बिना शास्त्रों के निर्देशानुसार सतोगण में रहकर किये जाते हैं | फल युक्त कर्म बन्धन के कारण बनते हैं, अतः ऐसे कर्म अशुभ हैं | हर व्यक्ति को अपने कर्म पर अधिकार है, किन्तु उसे फल से अनासक्त होकर कर्म करना चाहिए | ऐसे निष्काम कर्म निस्सन्देह मुक्ति पथ की ओर ले जाने वाले हैं |
अतएव भगवान् ने अर्जुन को फलासक्ति रहित होकर कर्म (स्वधर्म) के रूप में युद्ध करने की आज्ञा दी | उसका युद्ध-विमुख होना आसक्ति का दूसरा पहलू है | ऐसी आसक्ति से कभी मुक्ति पथ की प्राप्ति नहीं हो पाती | आसक्ति चाहे स्वीकारत्मक हो या निषेधात्मक, वह बन्धन का कारण है | अकर्म पापमय है | अतः कर्तव्य के रूप में युद्ध करना ही अर्जुन के लिए मुक्ति का एकमात्र कल्याणकारी मार्ग था |
प्रभु भक्ति से जुड़ा व्यक्ति थोड़ा विचलित तो हो सकता है लेकिन वह हार नहीं मान सकता उसके मार्ग ईश्वर ने खोल रखे हैं जिसकी दिशा वह स्वयं तय करता है और दिशा नेकी से अच्छाई से शुरू होकर सच्चाई तक पहुंचती है.... ब्रह्मदत्त त्यागी
जय श्री कृष्णा जय श्री राधे राधे जी ब्रह्मदत्त
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