My New Meaningful Poem..!!
“अकड़”
शब्द में काना-मात्रा नहीं है.....!!!
पर अलग-अलग मात्रा में
यह हर इन्सान में मौजूद है...!!!
संजोती कभी नहीं डुबोती है..!!!
इन्सानी किरदार की ये जंग है..!!!
दिम़क-सी दिमाग़ में फैलती है..!!!
जुर्म-औ-सितम की तो जननी है..!!!
बेचारा रंक तो इससे कोसों दूर है..!!!
पर अमीरों की नाक पर रहती है...!!!
करती प्रभु से दूर खुदको डँसतीं है..!!!
सौ बचो अकड़ की अकड़न से यारों
और जोड़ों नाता “रुँह”का “रुँह” से
क्योंकि हर “रुँह” में प्रभु बसत है..!!!
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