यह मौसम का गीलापन
और मन का सुलगना......
सदियों से होता रहा है.
बूंदों की ठंडक लिए
छूती है हवा
तो पोर पोर
एक बार फिर बहक जाता है....
उम्र के नंबरों को धकेल
कौन याद आने लगता है...
छत को भिगोती नन्ही नन्हीं बुंदिया
और स्लेटी आसमां,,
काई लगी सीढ़ी पर बैठे थे हम तुम ......
भीगे कपड़ों से उठती देह की गंध
कभी अजनबी नहीं हुई।
गमले का पौधा
तृप्ति के एहसास से भरा नया हो गया है......
मैं भी हो जाना चाहती हूं बिल्कुल नई......
इस मौसम में धोकर पिछला सब कुछ ,
संतोष से भरी भरी
प्रेम में तृप्त सी.....
हरी और कोमल दूब सी जिस पर एक बूंद ठहर
अभी भी चमक रही है...….

##बारिश कविता

***संगीता गुप्ता
जयपुर

Hindi Poem by Sangeeta Gupta : 111572668

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