लघु कथा- टूटा आइना
आशीष ने माही की खुली हुई किताबों को बन्द कर दिया। उसके हाथ को थामा और एक लालसी मुस्कान बिखेर दी। उसके इस प्रणय निवेदन से माही का मन भारी हो गया। वह निरूत्तर सी खड़ी पत्नी धर्म की जटिलता को सोख रही थी।
सुबह उसका एम.काम. का पेपर था। अपने पैरों पर खड़े होने का सपना। सारा दिन तो खटती रही थी। सास-श्वसुर के प्रति अपने दायित्वों की पूर्ति और ससुराल के कर्तव्यों का पाठ पढ़ा कर भेजी गयी थी। औरत की परिभाषा का जामा उसकी रग-रग में गूथा गया था। जहाँ स्वयं का स्थान अन्तिम छोर पर था। फिर भी अपने अस्तित्व के निर्माण का साहस किया था उसने।
रात ही तो थी जो उसने पढ़ने के लिये छोड़ी थी। उस पर ये पत्नी अधिकार जाग उठा था। अब कैसे होगी पढ़ाई? बरस भर की मेहनत और स्वावलम्बी सपनों का क्या होगा?
उसकी कशमकश से बेपरवाह पति ने उसे अपने बाहुपाश में बाँध लिया। उसकी बाहों में जकड़ी माही चरमरा कर टूटने लगी शब्दविहीन आवाज़ ने मौन होकर कहा- ' इतना निसंकोच आग्रह वो भी असमय? क्या ये इस निष्ठुर का प्रेम है? या मेरी परिपक्वता से ईष्या ? या फिर पूर्वाग्रहों से सनी पुरुषवादी सोच?'
भरभरा कर टूटे आइने की चुभन से उसके पॉव लहूलुहान हो गये। उसने अंधेरें में खिड़की से बाहर उस रास्ते को निराशा भरी नजरों से देखा जो सुबह उसके कालेज की तरफ जायेगा।
छाया अग्रवाल
बरेली