हौले कविता मैं गढ़ता हुँ
मन को जब खंगाला मैंने,
क्या बोलूँ क्या पाया मैंने।
अति कठिन है मित्र तथ्य वो,
बामुश्किल हीं मैं कहता हुँ ।
हौले कविता मैं गढ़ता हुँ।
हृदय रुष्ट हैै कोलाहल में,
जीवन के इस हलाहल ने,
जाने कितने चेहरे गढ़े ,
दिखना मुश्किल वो होता हुँ।
हौले कविता मैं गढ़ता हुँ।
जिस पथ का राही था मैं तो,
प्यास रही थी जिसकी मूझको,
निज सत्य का उद्घाटन करना,
मुश्किल होता मैं खोता हुँ।
हौले कविता मैं गढ़ता हुँ।
जाने राह कौन सी उत्तम,
करता रहता नित मन चिंतन,
योग कठिन अति भोग भ्रमित मैं,
अक्सर विस्मय में रहता हुँ।
हौले कविता मैं गढ़ता हुँ।
ज्ञात नहीं मुझे क्या पथ्य है,
इस जीवन का क्या सत्य है,
पथ्य सत्य तथ्यों में उलझन,
राह ना कोई चुन पाता हुँ।
हौले कविता मैं गढ़ता हुँ।
अजय अमिताभ सुमन
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