आज सोचा की अपने पहाड़ की कुछ बात लिखूं,
गढ़वाल के वो घाम लिखूं या वो जुण्याली रात लिखूं..
होती थी जहां रौनक कभी, वो खाली पड़े बाज़ार लिखूं
भूलने लगे हैं जिसे सब, वो कोथिग लिखूं या फुलारी का वो त्योहार लिखूं...
नहीं करते जो इंतजार किसी का अब, पितरों के बसाए गांव लिखूं,
या दूर जंगल में चरते हुए गोर लिखूं या उजड़े हुए गुठियार लिखूं.....