नए ज़माने की नई चाल
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‘बहू, कुछ है क्या खाने को...?’
‘ओहो, सुबह दस बजे तो आधा किलो लिया दूध में बनाकर दिया ही था। अब मुश्किल से तीन बजे है...रसोई है या कोई फैक्ट्री, जो आपके लिए चौबीस घण्टे चलती रहेगी।’
झन्नाटेदार आवाज सुनकर बूढ़ा सहमकर अपनी कोठरी में चला गया। बरतन साफ करते-करते मेहरी ने देखा कि कितने फल-मेवे डायनिंग टेबल पर पड़े-पड़े सड़ते रहते हैं, बासी होने पर फेंक दिए जाते हैं। बच्चे उन्हें देखते तक नहीं, पर दादाजी का मुँह तो बिना दाँत की बस्ती था, उनकी दाल तो खिचड़ी-दलिया से ही गल सकती थी।
महरी को एक उपाय सूझा, उसने एक मुट्ठी मेवा सिलबट्टे पर पीसा और जरा से दूध में एक पके केले के साथ मसलकर बुढ़ऊ को पकड़ा दिया। वे सपड़-सपड़ खाने लगे।
अब ये रोज का नियम हो गया। महरी रोज ये गरिष्ठ व्यंजन दोपहर में टीवी से चिपकी बहू की नजर बचाकर दादाजी को दे देती। कभी बच्चे देख लेते तो सोचते, दादाजी का आई क्यू कितना कम हो गया है ,जो मम्मी की जगह महरी से न जाने क्या-क्या माँगकर खाते रहते हैं!
महरी सोचती,उसकी नौकरी भी ये, जिन्दगी भी ये। झाड़ू-बरतन करते-करते प्राण निकल जाएँगे, कुछ पुण्य भी तो कर ले!
बहू सोचती, पिताजी भी डाँट-डपट से काबू में आते हैं। देखो, अब कुछ नहीं माँगते, मैंने कैसी आदत छुड़ा दी!
शाम को दμतर से लौटकर बेटा सोचता-पिताजी की सेहत सुधरती जा रही है, बहू कितना खयाल रखती होगी उनका!
खुद दादाजी सोचते-सोचना-समझना क्या, दिन तो काटने ही हैं।
साभार -प्रबोध