प्रयाग यात्रा - 3 पौराणिक और प्राचीन महत्व
प्रयाग के विषय मे तुलसीदास जी ने कहा है -
" को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ।
कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ॥
अस तीरथपति देखि सुहावा।
सुख सागर रघुबर सुखु पावा॥ "
भावार्थ
" पापों के समूह रूपी हाथी के मारने के लिए सिंह रूप प्रयागराज का प्रभाव (महत्व-माहात्म्य) कौन कह सकता है।
ऐसे सुहावने तीर्थराज का दर्शन कर सुख के समुद्र रघुकुल श्रेष्ठ श्री राम ने भी सुख पाया । "
सर्वप्रथम तीर्थराज प्रयाग को शत शत नमन,
प्रयाग यात्रा मे आप सभी का पुनः अभिनंदन है। जिस प्रयाग के महात्म्य का वर्णन करते हुए कहते है कि तीर्थराज प्रयाग का वर्णन कौन कह सकता है।
तो मैं तुच्छ अज्ञानी इसके महात्म्य को कहां वर्णित कर सकता हूँ।
फिर भी एक प्रयास किया है कि आपको प्रयाग से परिचित करा सकूं। आप सभी बुद्धिजीवियों से अनुरोध है, यदि कोई त्रुटि हो तो अवगत अवश्य कराए।
तो फिर तैयार हो जाइए प्रयाग यात्रा के इस मनमोहक भ्रमण के लिए मेरे यानि संदीप सिंह (ईशू) के साथ................
पौराणिक उल्लेख
प्रयाग का उल्लेख वेदों, उपनिषदों, ग्रंथों, पुराणों, कई यात्रियों के यात्रा वृत्तांत लेखों आदि में भी अनेकों स्थान पर किया गया है, और जहाँ इसके विषय में कई महत्त्वपूर्ण तथ्य दिये हुए हैं।
कई प्रसंगानुसार प्रयाग को प्रसिद्ध तथा प्राचीन तीर्थ स्थान बताया गया है, जो गंगा-यमुना के संगम पर स्थित है।
इसका क्षेत्रफल 5 योजन है, जहाँ जाने से अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है।
यहाँ प्रजापति क्षेत्र है, वहाँ स्नान करने वाला स्वर्ग प्राप्त करता है तथा यहाँ मरने वाला व्यक्ति भवजाल से मुक्त हो जाता है। देवराज इंद्र स्वयं प्रयाग की पवित्र धरा की रक्षा करते हैं। यहाँ सूर्य पुत्री यमुना सदा रहती हैं। यहाँ सिद्ध, देवता तथा ऋषियों का आवास है।
भगवान विष्णु को प्रयाग अतिप्रिय है,यहां जल-रूप में द्वादश माधव (बारह माधवों - शंख, पा, गदा, पद्मा, अनन्त, बिन्दु, मनोहर, असि, संकष्टहर, आदिवेणी, आदि और वेणी ) का निवास माना जाता है।
महाभारत के अनुसार यहाँ बलराम आये थे।
यहाँ यमुना के उत्तरी किनारे पर पुरुरवा की राजधानी थी। यहाँ श्री ललितादेवी का मंदिर भी है। यह श्राद्ध के लिए उपयुक्त स्थान है, कहते हैं कि पुरुष रूपी वेद की यह नाक है यह पावन प्रयाग भूमि ।
मत्स्यपुराण; पद्मपुराण ; कूर्मपुराण का कथन है कि प्रयाग का विस्तार परिधि में पाँच योजन है और ज्यों ही कोई उस भूमिखंड में प्रविष्ट होता है, उसके प्रत्येक पद पर अश्वमेध का फल होता है।
ब्रह्मपुराण का कथन है- ‘प्रकृष्टता के कारण यह ‘प्रयाग’ है और प्रधानता के कारण यह ‘राज’ शब्द अर्थात् तीर्थराज से युक्त है। '
प्रयाग महात्म्य के बारे मे मत्स्यपुराण ने ‘प्र’ उपसर्ग पर बल दिया है और कहा है कि अन्य तीर्थों की तुलना में यह अधिक प्रभावशाली है।
मत्स्यपुराण के मत से दोनों नाग यमुना के दक्षिणी किनारे पर हैं, किंतु मुद्रित ग्रंथ में ‘विपुले यमुनातटे’ पाठ है।
मत्स्यपुराण (111|4-10) में आया है कि कल्प के अन्त में जब रुद्र विश्व का नाश कर देते हैं, उस समय भी प्रयाग का नाश नहीं होता। ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर (शिव) प्रयाग में रहते हैं। प्रतिष्ठान के उत्तर में ब्रह्मा गुप्त रूप में रहते हैं, विष्णु वहाँ वेणीमाधव के रूप में रहते हैं और शिव वहाँ अक्षयवट के रूप में रहते हैं।
इसीलिए गंधर्वों के साथ देवगण, सिद्ध लोग एवं बड़े-बड़े ऋषिगण प्रयाग के मंडल को दुष्ट कर्मों से बचाते रहते हैं।
इसी से मत्स्यपुराण (104|18) मे उल्लेखित है कि यात्री को देवरक्षित प्रयाग में जाना चाहिए, वहाँ एक मास ठहरना चाहिए, वहाँ संभोग नहीं करना चाहिए, देवों एवं पितरों की पूजा करनी चाहिए और वांछित फल प्राप्त करने चाहिए।
प्रयाग की सीमा प्रतिष्ठान (झूँसी) से वासुकि सेतु तक तथा कंबल और अश्वतर नागों तक स्थित है।
यह तीनों लोकों में प्रजापति की पुण्यस्थली के नाम से विख्यात है।
मत्स्यपुराण के ही 102 अध्याय से 107 तक इसी तीर्थ का माहात्म्य भरा पड़ा है, जिसके अनुसार यह प्रजापति का क्षेत्र है। यहाँ के वट की रक्षा स्वयं शूलपाणि करते हैं, और यहाँ मरने वाला शिवलोक का भागी होता है।
▪️शूलपाणि - वह जिनके पाणि (हाथ ) शूल (त्रिशुल ) है, अर्थात शिव जी (भगवान शंकर )।
पद्मपुराण से पता चलता है कि कल्पतरु का पाठान्तर (यमुना-दक्षिणे तटे) ठीक है। वेणी क्षेत्र प्रयाग के अंतर्गत है और विस्तार में 20 धनु है, जैसा कि पद्मपुराण में आया है। यहाँ तीन पवित्र कूप हैं, यथा प्रयाग, प्रतिष्ठानपुर एवं अलर्कपुर में।
महाभारत में वनपर्व में आया है कि ‘सभी जीवों के अधीश ब्रह्मा ने यहाँ प्राचीन काल में यज्ञ किया था और इसी से ‘यज् धातु’ से प्रयाग बना है।
महाभारत वनपर्व , मत्स्यपुराण आदि ने प्रयाग के क्षेत्रफल की परिभाषा दी है -
‘प्रयाग का विस्तार प्रतिष्ठान से वासुकि के जलाशय तक है और कम्बल नाग एवं अश्वतर नाग तथा बहुमूलक तक है; यह तीन लोकों में प्रजापति के पवित्र स्थल के रूप में विख्यात है।'
वनपर्व तथा मत्स्य पुराण में बताया गया है कि प्रयाग में नित्य स्नान को ‘वेणी’ अर्थात् दो नदियों (गंगा और यमुना) का संगम स्नान कहते हैं।
वनपर्व तथा अन्य पुराणों में गंगा और यमुना के मध्य की भूमि को पृथ्वी का जघन (जांघ) या कटिप्रदेश कहा गया है। इसका तात्पर्य है पृथ्वी का सबसे अधिक समृद्ध प्रदेश अथवा मध्य भाग।
स्कन्दपुराण ने इसे ‘प्र’ एवं ‘याग’ से युक्त माना है। प्रयाग का अर्थ है ‘यागेभ्य: प्रकृष्ट:’, ‘जो यज्ञों से बढ़कर है’ या ‘प्रकृष्टो यागो यत्र’, ‘जहाँ उत्कृष्ट यज्ञ है। ’ इसलिए कहा जाता है कि यह सभी यज्ञों से उत्तम है, हरि, हर आदि देवों ने इसे ‘प्रयाग’ नाम दिया है।
अग्निपुराण का कथन है कि यहाँ तीन अग्निकुंड हैं और गंगा उनके मध्य में बहती है। जहाँ भी कहीं पुराणों में स्नान स्थल का वर्णन (विशिष्ट संकेतों को छोड़कर) आया है, उसका तात्पर्य है वेणी-स्थल-स्नान और वेणी का तात्पर्य है दोनों (गंगा एवं यमुना) का संगम।
त्रिस्थलीसेतु में इसकी व्याख्या यों की गई है- ‘यदि ब्रह्ययुप को खूँटी मानकर कोई डेढ़ योजन रस्सी से चारों ओर मापे तो वह पाँच योजन की परिधि वाला स्थल प्रयागमंडल होगा।
कई पुराणों एवं वनपर्व के मतानुसार - गंगा एवं यमुना के बीच की भूमि पृथ्वी के जाँघ है अर्थात् यह पृथ्वी की अत्यन्त समृद्धशाली भूमि है और प्रयाग जघनों की उपस्थ भूमि है।
प्रयाग को ‘तीर्थराज’ कहा गया है, जहाँ त्रिवेणी में स्नान करने का विशेष माहात्म्य है, जिसमें गंगा, यमुना तथा सरस्वती का संगम होता है।
यहाँ 60 करोड़ 10,000 पवित्र स्थान है, जिनमें उर्वशीरमण, संध्यावट, कोटितीर्थ आदि प्रधान हैं इससे दक्षिण में ऋणमोचन तीर्थ है, जो ऋण से मुक्ति देता है l
वाल्मीकि रामायण में प्रयाग का का उल्लेख भारद्वाज के आश्रम के सम्बन्ध में है, और इस स्थान पर घोर वन की स्थिति बताई गई है…
प्रयाग प्रजापति क्षेत्र है, वहाँ स्नान करने वाला स्वर्ग प्राप्त करता है तथा यहाँ मरने वाला व्यक्ति भवजाल से मुक्त हो जाता है। देवराज इंद्र स्वयं प्रयाग की पवित्र धरा की रक्षा करते हैं। यहाँ सूर्य पुत्री यमुना सदा रहती हैं।
महाभारत में गंगा-यमुना के संगम का उल्लेख तीर्थ रूप में अवश्य है, किंतु उस समय यहाँ किसी नगर की स्थिति का आभास नहीं मिलता।
(क्रमशः) प्रयाग यात्रा - 4 पौराणिक और प्राचीन महत्व (।।)
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अब अगले भाग मे मैं आपको पौराणिक और
प्राचीन महत्व के बारे मे बताऊँगा।
आपको यह लेख कैसा लगा कृपया समीक्षा
अवश्य करें।
जल्द ही पुनः आपके सम्मुख उपस्थित होऊँगा नए भाग प्रयाग यात्रा - 4 पौराणिक और प्राचीन महत्व (।।) मे......
✍🏻 संदीप सिंह (ईशू)