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ऊपर से दिख रही शांति के नीचे भीतर ही भीतर एक गहरा षड़यंत्र चल रहा था। आरती को तो कानोंकान खबर न हुई। जब अंडरटेंकिंग फार्म आ गया कि मैं छँटनी नहीं चाहती, कटनी फाउंडेशन में जाने को तैयार हूँ, तब पता चला। लगा पैरों तले की जमीन खिसक गई। क्योंकि विलय से पूर्व बीसीसी से 80 कर्मियों की छँटनी हो चुकी थी! पता क्या, अब भी कुछेक की छँटनी शेष हो! घबड़ा कर उसने फिर भरत जी को फोन लगाया। और वे फोन पर ही एकदम लाल-पीले हो गए। आरती को उनका वो आदिवासी तेवर अच्छा लगा। उसने मैनेजमेन्ट की माँ बहन करते हुए कहा कि, ऐसीतैसी उसकी, इतनी पुरानी और पक्की नौकरी को यूँ हड़प लेगा, कोई अंडरटेंकिंग नहीं देना। मैं कल ही छुट्टी लेकर आ रहा हूँ।
वो समय आरती पर बहुत भारी पड़ गया। उसने दिन भर कुछ नहीं खाया और शाम को भी बच्चों के लिए चार-छह रोटियाँ सेंक दीं, खुद दोपहर की एक कटोरी खिचड़ी से गुजारा कर लिया। नौकरी की अस्थिरता और गर्दन पर लटकती तबादले की तलवार ने उसका जीना हराम कर दिया था। उसने हिसाब लगाया कि कहीं तेरह साल बाद लौट कर एक बार फिर वही दुर्दिन तो उसके सामने नहीं आ खड़ा हुआ, जिसने जिंदगी सिरे से तबाह कर दी थी! जब उसके रोकते-रोकते भी अगले महीने शादी की तारीख निश्चित हो गई थी। गायत्री मंदिर से साधारण तरीके से शादी कर दी जाए ये तय कर लिया गया था। अब कोई रास्ता नहीं बचा इसलिए उसने भी यही स्वीकार कर लिया। शादी की कुछ तैयारी तो होनी नहीं थी। न सामान खरीदना था, न कपडे न गहने। जो थोड़ी बहुत तैयारी होती वो ऐसे, जैसे- किसी मातम की तैयारी हो रही हो! दिल से तो किसी ने स्वीकार नहीं किया था इसलिए खुश कोई नहीं था। और दुल्हन बनने जा रही आरती के लिए तो ये वाक्या यूँ था जैसे उसकी बलि चढ़ाने की तैयारी चल रही हो। उसे कोई उत्साह नहीं था; किसी काम में, जो हो जाए सो ठीक, जो न हो और भी ठीक।
माँ को शायद ये तसल्ली थी कि चलो बेटी की शादी उसकी मर्जी से हो रही है। वे जब भी उसे उदास देखतीं तो यही कहतीं कि क्यों उदास हो, तुम्हारे लिए ही सब कर रहे हैं। किसी की चिंता मत करो, जिसे जो कहना है कहे, जिसे जो सोचना है सोचने दो। मुसलमान भी तो इन्सान हैं। हिन्दू मुसलमान तो आदमी ने बनाए, परमात्मा ने नहीं। तू क्यों फिक्र करती हे। मैं साथ हूँ तो!
मम्मी की ऐसी बातें सुन कर वह दिल ही दिल में बेतरह रोने लगती। उन्हें क्या बताती कि उसे न प्यार हुआ न उसने ऐसा कोई ख्वाब देखा। यह सब तो नादानी और खेल-खेल में हो गया। जैसे, उस शख्स ने उसे सम्मोहित कर लिया हो। कोई वशीकरण मंत्र चला दिया हो। कि जब उसने प्रवेश का प्रस्ताव नहीं माना। वह तो हिंदू ही था...। वह तो जाति से बाहर भी नहीं जाना चाहती थी! उसे पापा और आप दोनों का खयाल था। वह अपनी तरफ से किसी को कोई दुख नहीं देना चाहती थी। फिर यह क्या हो गया। तुम्हें किस मुँह से बताऊँ माँ कि वो नशाबाज भी है और दुश्चरित्र भी। मैं जीती मक्खी नहीं निगलना चाहती मगर, मेरी किस्मत ने मुझे धोखा दे दिया। जो चूहा-मार दवा खा कर भी नहीं मरी!
शादी के दिन कुछ गिने चुने मेहमान भी आए पर सब को देख कर यूँ लगता जैसे घर में शादी नहीं किसी की मौत हुई है और ये भीड़ उसी की है। मामी ने उससे कहा कि तुम किस्मत वाली हो, वरना कितनों के साथ होता है ऐसा कि वो जिसे चाहे उससे ही शादी हो और वो भी परिवार की मर्जी से।
ऐसी बातें सुन वह भीतर-भीतर तड़पती, ऊपर से चुप रहती।
रिश्ते की और भी औरतें बोलतीं, खुशी झलक क्यों नहीं रही। अब जब सब राजी हैं तो खुश रहो।
ऐसे ताने आरती के दिल को छलनी कर जाते। एक दिन तो उसने यहाँ तक सुना, छत पर औरतें बतिया रही थीं, रण्डो मुसल्टा पे मरमिटीं!
जी में हर बार यही खयाल आता कि किसी कुएँ-बावड़ी में छलाँग लगा दे। फिर सोच कर रह जाती कि बदनामी में और इजाफा हो जाएगा। और क्या पता किस-किस को जेल काटना पड़े। दुष्ट आलम शाह दुश्मनी पेरने पूरे परिवार को न फँसवा दे! उसके पास चिट्ठियाँ, फोटो, प्रमाण-पत्र सहित पुख्ता प्रमाण थे। परिवार को विपत्ति में डालने से अच्छा तिल-तिल कर मरना।
सो, अपने लिए ही ये सजा चुन ली उसने।
वायदे के मुताबिक भरत अलस्सुबह ही आ गया। कार ने जब हाॅर्न दिया गली में तो हर्ष दौड़ कर बाहर गया और उन्हीं पाव लौटा, माँ-माँ, पापा आ गए!
वह चैंक गई, वह डर गई, उसे यकीन न हुआ! आलम कैसे आ सकता है? गुजारा-भत्ता न देना पड़े, इसलिए केस के डर से वह तो भूमिगत हो गया है! सम्मन नहीं ले रहा। और वह तो इतना अहंकारी है कि अब तो बुलाने पर भी कभी न आएगा। उस गैर-जिम्मेदार से क्या उम्मीद कि आकर बच्चों की जिम्मेदारी ले ले! जिसने माँ को नहीं निभाया वह पत्नी को क्या खा कर निभाएगा! हर्ष को उसकी क्या याद? कैसे पहचाना...।
ओ-भरत जी! खिड़की से कार देख, हतप्रभ सी आगे बढ़ी तो नीले सूट में उसे दरवाजे पर खड़ा पाया।
तुम भी क्या! कमर से लिपटते हर्ष के सिर पर चपत लगाते मुँह से हल्की सी चीख निकली।
बोलने दीजिए, बच्चा ही तो है! भरत ने उसे हाथ पकड़ खींच अपने से चिपटा लिया।
ओह! आइए! उसने मुस्करा कर हटते हुए रास्ता दिया।
भरत ने भीतर आकर मिठाई का डिब्बा रुकू को पकड़ा दिया, जो उजबक सी माँ के पीछे आ छुपी थी।
घर में त्योहार-सा आलम हो गया।
सभी खुश।
आरती भी थोड़ी देर के लिए मूल विपत्ति भूल गई अपनी।
नाश्ता बन चुका था। उसने जल्दी से चाय भी बना ली। इस बीच भरत ने रुकू और हर्ष से ढेर सारी बातें कर लीं। तब तक बस का हाॅर्न सुनाई दिया तो दोनों बच्चे अपने पिट्ठू बस्ते पीठ पर लाद बाहर की ओर दौड़ गए। भरत ने चाय और नाश्ता लिया तब तक आरती आसमानी रंग की लेगी पर वासंती रंग की हाफ कुर्ती पहन, टेढ़ी माँग निकाल, बाल सीने के दाईं ओर डाल, माथे पर सिंदूरी बिंदी लगा और बैग कंधे पर लटका कर मुस्कराती हुई उसके आगे आ गई।
चला जाय! भरत ने अपनी घनी मूँछों के बीच मुस्कराते हुए पूछा।
जी! उसने मुँह हिलाया तो कानों के बुंदे झूलने लगे।
संकेत पा भरत आगे निकल कार में जाकर बैठ गया। तब मकान को लॉक कर वह भी कार की अगली सीट पर उसके बाईं ओर आ बैठी। गाड़ी स्टार्ट करते वह बोला, आज शनिवार है!
जी!
संयोग से आज ही के दिन आप पहली बार इस कार में हमारी बाजू में बैठी हैं!
जी!
स्थायित्व मिलेगा!
उसने तवज्जोह न दी। अतीत में गोता लगा गई।
जो भी हो, अब ये घर ही सदा के लिए मेरा भाग्य बन गया तो स्वीकारना तो पड़ेगा, अंततः उसने सोचा। पर आलम को कैसे स्वीकार करूँ। मन थिर न हो रहा था। जैसे-जैसे समय बीत रहा था, रात हो रही थी, डर बढ़ता ही जा रहा था। क्या करूँ कुछ समझ न आ रहा था।
फिर उस दिन पता नहीं क्या हुआ, कैसे, पर वह पत्थर सी हो गई। मन से, शरीर से पत्थर! इसके बिना गुजारा नहीं था। इसके बिना आलम को कैसे सह पाती! वो पल जो किसी भी लड़की के लिए सपनों का पल होता है, उसके लिए मन में, उस पल के लिए कोई उत्साह नहीं, बल्कि डर था, घृणा थी, पर उससे बचने का कोई उपाय नहीं था। वह साक्षात् अहल्या बन गई। तो उसे विश्वास हो गया कि- अब सब अहसास मर चुके हैं। अब शायद जिया जा सके।
भाटापारा आने को हुआ तो उसने पूछा, हम यहाँ क्यों चल रहे हैं?
भरत यकायक अचकचा गया, लंच के लिए! गोया इस अप्रत्याशित प्रश्न के लिए मानसिक रूप से तैयार न था।
आप कहते, हम घर में बना देते, क्या पसंद करते हैं खाने में? उसने पूछा।
कुछ खास नहीं, सोचा था, बाहर चल कर घूमेंगे, कहीं बैठेंगे, तुम्हारी दर्द भरी दास्तान सुनेंगे!
ऐसा कुछ नहीं हमारी कहानी में... आप नाहक परेशान न हों! अपना-अपना भाग्य है! कहते निश्वास छूट गया।
भाग्य तो कर्म से बनता है।
कर्म से ही तो बना होगा, पिछले कर्मों से...प्रारब्ध तो पहले बना, पीछे बना शरीर!
आप तो कविताकार हैं।
नहीं, ये तो कबीर का दोहा है।
लेकिन आप कवयित्री तो हैं, हमें पता है।
किसने बताया जी!
आपकी सिस्टर रेखा ने...
तब उसने सोचा कि फिर तो रेखा नेताम ने उसका अतीत भी बता दिया होगा! क्यों नहीं, अब वह रेखा कुलश्रेष्ठ तो नहीं रही। एक मैं ही हूँ जो खांन नहीं हुई। वही रही जो माँ-बाप ने जनी। आखिर औरत क्यों पति का कुल गौत्र अपना लेती है। अपनी पहचान ही बदल लेती है। इससे क्या जीन बदल जाता है! कैसी है समाज की मान्यता। स्त्री का स्वतंत्र अस्तितव ही नहीं।
कहाँ खो गईं आप? भरत ने टोका।
चलिए, लौट चलिए! उसने अचानक कहा।
पर उसके मन में दुविधा उत्पन्न हो गई। उसे इस नए समझौते के लिए मानसिक रूप से तैयार जो करना था, बोला, कहीं बैठना है, कुछ खास बात करना है!
हम हमेशा तैयार रहते हैं। आप कैसी भी बात कहीं भी कभी भी कर सकते हैं। यहाँ भी, अभी!
यहाँ तो नहीं, चलिए किसी रेस्तरां में लंच में वो बात भी कर लेते हैं। कह कर उसने साहू होटल के लॉन में ले जाकर गाड़ी पार्क कर दी। और डाइनिंग टेबिल पर आकर बैठ गए तो सूप लेने के दौरान ही उसने कहा, नौकरी और तबादला बचाने का एक ही तरीका है, अगर तुम हाँ कहो!
हम दुर्रानी से इस जिंदगी में बात नहीं करेंगे, हमें इन लोगों से नफरत है!
जानते हैं, उसने आहिस्ता से कहा, उससे बात करने की जरूरत नहीं पड़ेगी आपको!
फिर!
बात ये है आरती, कि तुम सीनियर हो, पर तुम्हें सुपरसीट किए बिना काम बनेगा नहीं। क्योंकि तुम जानती हो, एक निकाय में महिला कार्यक्रम अधिकारी की एक ही पोस्ट होती है। एक तो नीलिमा तुम्हारे बाद ट्रान्सफर पर आई है, दूसरे दुर्रानी चाहता है कि...
उसका प्रमोशन! हमें पता है। वह बोली।
लेकिन जब तक तुम अनापत्ति दो...
और न दें तो!
तुम्हें कटनी जाना पड़ेगा, और पता नहीं छँटनी हो जाए!
सुन कर वह काँप गई। रेश्मा और हर्ष का भविष्य उसे अंधकारमय दिखने लगा। आँखें भर आईं। गला रुँध गया, आपका शुक्रिया!
उसने रूमाल ले लिया, आप न होते तो...आँखों के किनारे पोंछते हुए कहा।
भरत ने हथेली थाम ली, घैर्य रखो!
खाना आ गया और वे लोग चुपचाप खाने लगे।
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