Chakra - 7 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | चक्र - 7

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चक्र - 7

चक्र भाग-7

रात मुश्किल से कटी

घर खाने को दौड़ रहा था, क्योंकि खाली था। जिस पत्नी और बच्ची की अब से पहले कोई जरूरत महसूस न होती, लता की ओर से ठुकराए जाने पर मन अब उसी की रिक्तता महसूस कर रहा था। रात मुश्किल से कटी। मन इतना बेचैन कि कॉलेज भी नहीं गया। नौकरी छूटे तो छूट जाए, बस अब मरना सूझ रहा था। और तभी लगा कि एक जगह है, जहाँ चैन मिल सकता है। वही ब्रह्म-साधना आश्रम, जो उस शिविर के बाद शहर में स्थानीय इकाई के रूप में स्थापित हो गया है। सो, हारकर वहीं चला आया।

कक्ष जिसके द्वार पर ‘उप कुलपिता’’ की तख्ती लगी थी, मैं झिझकता-सा उसी के अंदर प्रवेश कर गया। वहां एक बुजुर्ग महिला शरद बहन श्वेत साड़ी में सुशोभित एक आरामकुर्सी में आराम फरमा रही थीं। उन्होंने मुस्करा कर स्वागत किया तो मैं प्रणाम करके उनके सम्मुख ही पड़ी एक ईजीचेयर पर बैठ गया। थोड़ी हिचकिचाहट के बाद मैंने परिचय विषयक प्रश्न पूछा तो उन्होंने बताया कि- अब कोई पर्सिनेलिटी नहीं, संस्थान ही हमारी आईडेंटिटी है। अब से कोई आठ-नौ दशक पहले परमपिता धर्मदास जी को 90 वर्ष की सुदीर्घ आयु में सत्यस्वरूप का साक्षात्कार हुआ था। जिसके बाद उन्हें एक अलौकिक नाम मिला योगी तपेश्वर। इस दिव्य अनुभूति से उन्होंने ‘ईश्वरीय ज्ञान संस्थान’’ की स्थापना की। जिसमें मूल्य शिक्षा, आध्यात्मिक ज्ञान और सहज राजयोग की शिक्षा शुरू हुई। इसके संचालन का कार्यभार मुख्यतः महिलाओं ने सम्भाला। इसकी सबसे पहली मुख्य प्रशासनिक कुमारी देवहूति थीं।

‘‘इसका मुख्य उद्देश्य क्या है?’’ मैंने पूछा तो उन्होंने बताया कि- भारतीय संस्कृति को पुनर्जीवित करना, इंसान को उसके पूर्वजों से जोड़कर उसे सत्कर्मो की ओर आगे बढ़ाना, ताकि वह खुद के बजाय मानव भलाई के लिए काम करे। हम ऐसा संसार बनाना चाहते हैं जहां ऊंच-नीच, जात-पांत का कोई बंधन न रहे। हमारा उद्देश्य राजयोग ध्यान की शक्ति से पूरे समाज को आलोकित करना है।’

-राजयोग क्या?’

-जो परमात्मा सर्व आत्माओं के परमपिता सदाशिव हैं, जिन्हें शास्त्रों में प्रजापिता ब्रह्मा, सृष्टिकर्ता, आदिदेव व हिरण्यगर्भ आदि नाम दिए गए हैं, उन्होंने साधारण मानवीय तन का आधार ले तपेश्वर स्वामी बन अपने ज्ञानामृत से सृष्टि को आगे बढ़ाया। परमात्मा का वह ज्ञानामृत ही राजयोग है, जिसके द्वारा हम सृष्टि नव-निर्माण का पुनीत कार्य कर रहे हैं। सहज राजयोग ऐसी साधना है जिससे आत्मा के सभी पाप समाप्त हो जाते हैं और वह पावन बन जाती है। राजयोग के माध्यम से मनुष्यात्मा फिर से देवात्मा बन जाती है। इस योग का अभ्यास कोई भी मनुष्य कर सकता है। यों तो सभी धर्म जीव, आत्मा और ईश्वर को एक मानते तो हैं परंतु ‘सत्य ज्ञान’ के अभाव में तेरा-मेरा करते हैं। इस भेद को मिटाने का राजयोग सबसे सरल माध्यम है।’

-आप परमात्मा से मिलन की बात करती हैं, यह कैसे संभव है?’

-इसमें असंभव क्या है। परमात्मा को पाने के लिए ही इंसान जप-तप, तीर्थ करता है, इसके बाद भी वह मिलेंगे ही, इसका किसी के पास प्रमाण नहीं है। लेकिन राजयोग के माध्यम से हर कोई अपनी आत्मा से परमात्मा का मिलन आसानी से करा सकता है, क्योंकि वह इस धरती पर मौजूद हैं, आप उनसे मिलकर अपने जीवन को सुख, शांति, आनंद से भर सकते हैं। इसके लिए किसी मंदिर-तीर्थ जाने, व्रत-पूजन करने की जरूरत नहीं है।’

-आपका उनसे मिलन हुआ?’

-जी हां, आप मेरे चेहरे पर शांति का भाव, हृदय की संतुष्टि देखकर इसका अंदाजा लगा सकते हैं। परमात्मा से इंसान इसी उपलब्धि के लिए तो मिलना चाहता है!’

कहकर उन्होंने परम संतोष का अनुभव किया तो मैंने उनके चेहरे पर सचमुच उदात्त भावों को मंडलाते देखा। आंखों में आकाश-सी निस्सीमता, मंद मुस्कान में सागर-सी गहराई देखी। और अनुभव किया कि उनके अमृत वचन मेरे दग्ध हृदय पर सचमुच शीतल जल की फुहारों की तरह पड़ रहे थे! दो मिनट की परम विश्रान्ति के बाद सहसा मैंने वह प्रश्न पूछ लिया जो मेरे मन को देर से मथ रहा था, ‘‘तन-मन से पवित्रता का आशय क्या शादी न करने से है?’’

‘‘जी नहीं, विवाहित व्यक्ति भी तन-मन से पवित्र रहते हैं। उनका मन, वचन, क्रिया पवित्र होनी चाहिए।’’

‘‘अगर ऐसा है तो आपके यहां महिलाएं सफेद साड़ी क्यों पहनती हैं?’’

‘‘वह सादगी व शांति का प्रतीक है। वस्त्र के अनुसार वे अपने जीवन में शांति को धारण करके ज्ञान का प्रकाश जन-जन तक पहुंचाती हैं।’’

‘‘आप कब से जुड़ी हैं, अभियान से?’’

‘‘हम तो बचपन से...।’’

कहकर वे मुस्कराईं तो मैंने तपाक से पूछ लिया, ‘‘घर-संसार नहीं बसाया?’’

‘‘बसाया, पर अध्यात्म का! हम चिर-कुमारियां तो सदाशिव देव की प्रतिमूर्ति ब्रह्मलीन स्वामी जी से ही परिणय-सूत्र में बंधती हैं!’’

कह कर वे गहरे अभिमान से मुस्कराने लगीं, जैसे- कह रही हों, ऐसा अभिमान भूलकर भी न छूटे कि मैं उनकी दासी हूं!

सहसा मुझे लता की याद आ गई कि वह इसी ओर तो आ रही थी। झटका-सा लगा कि कहीं फिर न चली आए! हठात उसके भविष्य की गहरी चिंता हो आई। प्रणाम कर मैं उनके कक्ष से निकल आया। और वहां से सीधा लता के घर। मन ही मन डर रहा था कि मम्मी नहीं तो आज पापा तो जरूर लौट आये होंगे! पर वहां आकर पता लगा कि घर कल की तरह आज फिर सूना ही था। मगर कल की तरह आज मुझे फिर पाकर वह उत्साहित न थी। मैंने आते ही कहा, "आज तो भोजन करके जाऊँगा, घर में कल से ही कोई बनाने वाला नहीं है।"

"अरे, आप कल से भूखे हैं!" उसे दया लगी।

और मैं मुँह ताकने लगा कि क्या यह प्यार नहीं है! 'अरे मूरख, यही प्यार है!' मैंने खुद को धिक्कारा।

लता किचिन में जाकर जुट गई, मैं अखबार पढ़ने लगा जो आज सुबह से देखा तक न था। बीच-बीच में पत्नी और बेटी का भी ख्याल सता रहा था... अगर मैं कालेज नहीं जा रहा था तो बेटी को टेस्ट दिलाने मुझे ही ले जाना था। क्या यह मेरी जिम्मेदारी नहीं थी?

प्रेम क्या है, मैं समझ नहीं पा रहा था, उसने मुझे बर्बाद कर दिया- पूरी तरह नाकारा और पथभ्रष्ट! अगर वह मन के स्तर पर ही सुलट जाता तो देह अवलंब क्यों बनती?

"लीजिए!"

लता भोजन ले आई। उसने उसे सेंट्रल टेबिल पर सजा दिया।

"अरे, इतनी जल्दी!" मैं चौंक गया।

"सब्जी मैंने बना कर रखी थी, मुझे पता था आप जरूर आएंगे! बस चार रोटियां सेंकना थीं सो आटा लगाकर सेंक दीं झटपट!" वह मुस्कुरा रही थी।

और मैं सोच रहा था कि- मैं इसे कभी समझ भी पाऊंगा या नहीं!

और समझ पाऊं या नहीं, पर इतना जरूर समझ गया हूँ कि- तुम मुझे कभी मुक्त नहीं करोगी लता!

दिल में हाहाकार मचा था और मैं उसकी आंखों में झांक रहा था।

"उठो, हाथ धोकर आओ और अच्छे बच्चे की तरह खा लो झटपट..." कहती मुस्कुराती वह फिर हॉल से निकल गई।

तब मैंने बेसिन पर जाकर हाथ धोए और टॉवेल से पोंछ कर सोफे की कुर्सी पर आ बैठा। और खाने पर एकदम टूट पड़ा। उसे पूछने की जरूरत भी नहीं समझी, यही सोच कर कि जब वह इतना एडवांस करती है तो खुद तो खा चुकी होगी ना!

लेकिन थोड़ी देर में वह बगल में ही आकर बैठ गई और मेरी प्लेट से ही 1-2, 1-2 गस्से बनाकर खाने लगी। मैं उसे इस तरह खाते हुए देखकर यही सोच रहा था कि वह सब कुछ करती है मगर साथ सोती नहीं! ऐसी क्या मुसीबत है जो मुझे एक बार भी रतिदान नहीं दे सकती! दुनिया में कितनी ही लड़कियां हैं जो ऐसा करती हैं! लेकिन वह अपनी योनि शुचिता को और वह भी इस जमाने में इतना महत्व दे रही है, कि न पूछो?

"और लाऊं?" प्लेट में खाना खत्म देख उसने पूछा।

"नहीं," मैंने कहा, "आज भूखे को भोजन करा कर तुमने खूब पुण्य कमा लिया।"

इस पर वह ओठों ही ओठों में मुस्कुराने लगी तो मैं मन ही मन कहने लगा, लेकिन भोजन अभी अपूर्ण है, इसे तुम कब समझोगी!

"पता है, कल हमें तो रात भर नींद नहीं आई!"

-अरे! तुम फिर पागल बनाने लगीं!' मैंने मन ही मन कहा।

"एक अनजाना-सा डर लगता रहा..." वह काँपती-सी बोली, "पता है, आपके जाने के बाद पड़ोस में एक बच्ची का रेप हो गया!"

"अरे! इतना खराब माहौल यहां का," मेरे मुँह से निकला, "मम्मी-पापा को तुम्हें अकेला छोड़कर नहीं जाना था...।

निराशा में उसने सिर झुका रखा था। मैंने ठोड़ी के नीचे अपनी उंगलियों का जोर लगा चेहरा उठाया, और जैसा आभास था, आंखों में नन्हें आंसू झिलमिला रहे थे।

"तुम कहो तो आज मैं यहां रुक जाऊं," मैंने कहा। फिर अटकता-सा बोला, "या तुम...मेरे साथ चलो!"

हॉल में सोफा के अलावा एक दीवान भी था, जिस पर सदैव एक मोटा गद्दा, तकिया और चादरा सजा रहता...। आज वहां किताबों का ढेर था जो असंगत लग रहा था। उठकर वह बिस्तर ठीक करने लगी...। रोकने की मंशा जान, बागले साब की लुंगी से अपनी पेंट बदल मैं पेशाब करने चला गया। लौटकर आया तब तक वह अपने स्टडी-कम-बेडरूम में जा चुकी थी। बत्ती बुझाकर मैं लेट गया। दिल को समझा लिया कि- उसे जैसा मंजूर है, वैसा ही संबंध बनाकर रखूंगा। प्यार तो एक अनुभूति है... सच है कि देह पर उतर कर उसे आधार मिल जाता है, पर किसी कारण दैहिक मिलन न हो तो क्या ऐसे घनिष्ठ सम्बन्ध को तोड़ देना चाहिए!

मन को तरह-तरह से समझा कर मैं निद्रा देवी के आगोश में चला गया था। क्योंकि कल भी नहीं सो पाया था। मगर बीच में स्वप्न से या किसी स्पर्श/आहट/छाया से नींद खुल गई और मैं चौंक कर उठ बैठा। किचन या वॉशरूम में कहीं लाइट जल रही थी... रोशनदान से उसका मद्धिम प्रकाश हॉल की सामने वाली दीवार पर पड़ रहा था। उसी के परावर्तन में दिखा, सोफे पर हाथ-पाँव सिकोड़े और गर्दन मोड़े मधुर संकोच की एक छाया-सी पड़ी थी। दिल यकायक धकधक कर उठा...उठकर देह पर कंपकंपाता हाथ रख सशंकित स्वर में कहा, "लता!"

और वह उनींदी-सी बोली, "नींद नहीं आ रही थी!"

चिबुक थाम मैंने स्नेह-सिक्त वाणी में पूछा, "डर लग रहा था...?" और  उसने स्वीकृति में गर्दन हिला दी तो अभिभावक की तरह अधिकार पूर्वक हाथ पकड़ दीवान पर ले आया, "चलो, यहां सो जाओ!"

"सो जाओ!" बगल में लेट सिर में उंगलियों की कंघी करने लगा।

चेहरे पर थकान के बावजूद घुटने से ऊपर तक के कैप स्लीव पिंक बेबी डॉल नाइटवियर में वह कल से अधिक सेक्सी लग रही थी। दृष्टि उभरे हुए उरोजों पर अटक गई। हाथ उसकी नाजुक कमर को घेरे में लेने मचल उठे। मगर वह दुष्टा कभी भी कुछ करने न देगी, इसी निराशा में निश्वास भर करवट बदल ली। फिर हताशा और थकान में डूबा कुछ देर में झपक गया। मगर थोड़ी देर बाद ही कनपटी पर उसकी नर्म बाँह की छुअन से नींद खुलने लगी। और इसके बाद उसने गुदगुदी जाँघ भी उठाकर कमर रख ली तो नींद एकदम उचट गई।

पीठ से गुदगुदे उरोज चिपकाये वह सो रही थी या नहीं, मुझे नहीं पता, पर उस मादक स्पर्श से दिल में तेज चुभन उठ खड़ी हुई थी। यकीन नहीं हो रहा था कि दवा मुट्ठी में थी पर गटक नहीं सकता!

चुभन सहन न हुई तो सीना हथेली से मल उठा। फिर श्वास पर नियंत्रण खो करवट बदल हाथ पीठ पर रख लिया। फिर भावुकता में चेहरे से लटें हटा गाल चूम लिया।

हरकत से वह जाग पड़ी और औंधी हो, सिर तकिए में दे हाथ-पाँव पटक उठी।

"बदन टूट रहा है?" मैंने लज्जित स्वर में पूछा तो तनिक देर में कूल्हे मटकाते वह कराही, "कमर टूटी जा रही है..."

"फोर्टविन दे दूँ?" कहते दिल धड़क गया।

"आप रखते हैं?" जैसे दूर से कोई पीड़ित स्वर उभरा।

"वक्त-जरूरत के लिए..." कहते झट से उठा और गेट पीछे की खूंटी पर लटके पेंट तक जा दो पल बाद लुंगी में हाथ दिए लौटा।

देखकर आंखें मूंद लीं मानो बच्चों की तरह इंजेक्शन से डरती हो! मन ही मन हँसता मैं दीवान के पाँयते पहुँच गया। फिर सावधानी पूर्वक आगे को झुक, कमर में हाथ खोंस डरते-डरते उठाई तो सहयोगवत् नीचे की ओर खिसक घुटनों के बल हो गई! मगर नाइटवियर के घेर में लुंगी खोलते ही करंट-सा खा चौंक गई, "ये क्या!"

स्वर लरज उठा, "निडिल नहीं थी....सिंरिज से देना पड़ रहा है..."

"मगर कहां, कुछ होश भी है?" सिहरते पूछा।

"घबराओ नहीं, सही जगह लग रहा है!" कहते कमर हाथों में कस झटके से पास कर दिया। और वह दर्द से बिलबिला गई, 'गोट बस्ट ऽ'

जब फारिग हो आंसू भरे गाल चूम सॉरी बोला, रुख नहीं मिलाया। पश्चाताप में डूबा सोफे पर जाकर लेट रहा। बड़ी मुश्किल से रात कटी। सुबह जब वाशरूम के लिए उठ गई, बिना बताए चुपचाप निकल आया।