भाग 1: दूरियों की चुप्पी
दिल्ली, शाम के 6:20।
ऑफिस बस से उतरकर माया पैदल अपने घर की ओर चलने लगी। हाथ में भारी लैपटॉप बैग था और मन में राहुल की खामोशी। सड़क पर चाय की दुकान से उठती भाप और धीमी-धीमी बूंदों ने उसका मन और भारी कर दिया।
माया 26 साल की थी — गेहुंआ रंग, बड़ी-बड़ी भावुक आंखें, और हमेशा हल्की सी मुस्कान जो अब अक्सर गुम रहती थी। उसके लंबे बाल आज भी खुले थे, बारिश में थोड़े उलझे हुए, ठीक उसकी ज़िंदगी की तरह।
वो एक एड एजेंसी में जॉब करती थी। क्रिएटिव काम उसे पसंद था, लेकिन इन दिनों किसी चीज़ में मन नहीं लग रहा था। हर काम mechanically हो रहा था। एक चुप्पी उसके भीतर घर कर गई थी।
बस स्टॉप से चलते हुए उसने एक बार फिर राहुल का चैट खोला। आख़िरी मैसेज अब भी वही था:
“आज क्लाइंट मीटिंग लेट है, बात नहीं कर पाऊंगा। टेक केयर।”
तीन दिन हो गए थे।
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राहुल – बेंगलुरु का लड़का, 28 साल का, साफ रंग, हल्की दाढ़ी, और शांत-गंभीर स्वभाव।
वो टेक कंपनी में सीनियर इंजीनियर था। दिमाग बहुत तेज़, पर बोलने में संकोची। उसके दोस्त कम थे, लेकिन जो भी थे, दिल से थे।
माया के साथ उसका रिश्ता कॉलेज से शुरू हुआ था — लाइब्रेरी में पहली मुलाकात, माया की मुस्कान और राहुल का शर्माना… वहीं से कहानी शुरू हुई थी।
पर अब?
अब ज़िंदगी जॉइनिंग लेटर, एमआई, और प्रमोशन की फाइलों में सिमट रही थी। वो माया से बात करना चाहता था, बहुत कुछ कहना चाहता था, लेकिन हर कॉल के पहले उसकी उंगलियां रुक जाती थीं। लगता था जैसे बात करेगा, तो वो उदासी सुन लेगी जो अब उसकी आवाज़ में बस गई है।
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माया का घर — एक छोटा सा फ्लैट, जिसमें अब सिर्फ वो, उसकी माँ और छोटा भाई रहते थे।
पापा को गुज़रे दो साल हो गए थे। माँ की आंखों में अब उम्मीद से ज़्यादा चिंता रहती थी।
माया जैसे ही अंदर आई, माँ ने रसोई से पूछा, “राहुल से बात हुई?”
माया ने जूते उतारते हुए धीमे से कहा, “नहीं माँ... उसका फोन बिज़ी था।”
माँ कुछ पल चुप रहीं, फिर बोलीं —
“बेटा, समझदारी सिर्फ इंतज़ार में नहीं होती। रिश्तों को वक़्त पर नाम देना ज़रूरी होता है।”
माया ने माँ की आंखों की तरफ नहीं देखा। वो जानती थी माँ ग़लत नहीं थीं। लेकिन वो ये कैसे बताए — राहुल ही उसका सुकून है, उसकी दुआओं की वजह है।
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रात को छत पर बैठी माया ने अपने फोन में राहुल की एक पुरानी वॉइस नोट प्ले की:
"माया, तुमसे बात न हो तो जैसे दिन अधूरा लगता है। वादा है, जल्दी मिलने आऊंगा… बस थोड़ा सब संभल जाए।"
उसने आंखें बंद कर लीं।
छत की ठंडी हवा और उसके गालों पर बहती आंसू की एक पतली सी लकीर... सब कुछ बता रही थी कि फ़ासले अब सिर्फ शहरों के नहीं रहे, वो दिलों में भी पनप गए हैं।
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(…जारी है – भाग 2 में होगा एक फैसला, एक टकराव और शायद... एक नया मोड़)
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-डिम्पल लिम्बाचिया 🌸