जो कहा नहीं गया
(एक प्रेम, जो राज्य का नहीं… आत्मा का था)
विरक्त राजकुमार
राजकुमार विष्णु का जन्म राजघराने में हुआ था, लेकिन मन उसका वन और वेदांत में बसता था। बचपन से ही उसके भीतर एक अलग चंचलता थी – ना तख़्त की लालसा, ना युद्ध की अभिलाषा।
पिता ने उसे 15वें वर्ष में ही विद्या व धर्म के लिए आश्रम भेज दिया — जहाँ ऋषियों के बीच जीवन अनुशासन, संयम और सेवा में बीतता।
वहीं एक दिन वो उसे मिली।
वो कन्या… राध्या
आश्रम की रसोई में एक कन्या सेवा करती थी — राध्या।
ना वह राजकन्या थी, ना कोई युद्ध नायिका, लेकिन उसकी आंखों में ऐसी शांति थी कि अग्नि भी ठंडी हो जाए।
विष्णु ने कभी उससे कुछ नहीं कहा।
लेकिन हर बार जब वह भोजन परोसती, उसकी उंगलियों से उठती सोंधी गंध और आंखों की मौन करुणा कुछ कह जाती।
कुछ ऐसा जो कहा नहीं गया, पर महसूस होता रहा।
समय की साजिश
एक दिन समाचार आया —
राजा बीमार हैं।
और राजकुमार विष्णु को राजगद्दी के योग्य घोषित किया गया है।
आश्रम के गुरु बोले,
"अब तुम्हारा मार्ग तप का नहीं, कर्म का है। राज्य तुम्हें पुकार रहा है।"
रात को विष्णु चुपचाप राध्या के कक्ष के बाहर खड़ा रहा।
कुछ कहने की इच्छा थी।
लेकिन भीतर से स्वर आया —
“महाराज अब आपको अश्वमेध की तैयारी करनी है, राध्या की नहीं…”
विष्णु लौट गया।
कुछ नहीं कहा।
राजमहल में राजतिलक के समय राध्या ने आश्रम छोड़ दिया।
कोई नहीं जानता वो कहाँ गई।
किसी ने नहीं खोजा।
लेकिन कुछ वर्षों बाद, विष्णु को एक गुप्त चिट्ठी मिली —
जिसमें लिखा था:
> “राज्य को उसकी रानी चाहिए होती है।
और प्रेम को उसका त्याग।
आप राजकुमार थे, मैं सिर्फ रसोई की कन्या।
मुझे खुशी है कि आप आज सम्राट हैं।
और मैं… सिर्फ एक स्मृति।
कोई नाम नहीं, कोई मांग नहीं।
बस एक भावना — जो कहा नहीं गया।”
विष्णु का हृदय कांप उठा।
लेकिन उसने अब भी किसी से कुछ नहीं कहा।
सम्राट विष्णु का शासन न्यायप्रिय था।
लेकिन दरबार में विद्रोहियों की फुसफुसाहट शुरू हो गई थी।
"राजा का मन अब भी किसी कन्या में है जो न तो राजकुल की है, न रानी बनी।"
इन्हीं साजिशों के बीच एक दिन महल के बाहर एक वेशभूषा में एक स्त्री पकड़ी गई।
उसके पास कोई अस्त्र नहीं था, सिर्फ एक पुरानी माला थी — और एक रसोई की पोटली।
विष्णु जैसे ही उस स्त्री की आँखों से मिला — उसके चरणों में गिर पड़ा।
“राध्या…!”
सब दरबारी हक्के-बक्के रह गए।
लेकिन राध्या मुस्कुराई —
“राजा… आपने जो नहीं कहा था, वो मैंने समझ लिया था।
मगर जानने की चाह नहीं थी।
त्याग का प्रेम होता है, अधिकार का नहीं।”
दरबार स्तब्ध था।
कोई कह रहा था, “राजा की मर्यादा…”, कोई “प्रजा की गरिमा…”
लेकिन विष्णु ने हाथ उठाया और कहा —
> “राज्य के लिए मैंने सिंहासन स्वीकारा,
मगर हृदय का राज्य आज भी उसी के नाम है
जिसने बिना किसी वादे के
जीवन भर मेरा सम्मान किया…
प्रेम किया…
और फिर… चुपचाप दूर चली गई।
यही सच्चा प्रेम है।
यही ‘जो कहा नहीं गया’ है।”
उसने राध्या को रानी नहीं बनाया।
क्योंकि राध्या ने स्वयं ही कहा था —
"मुझे पद नहीं चाहिए, बस याद रखो कि कहीं एक समय में, कोई थी — जिसने तुम्हें दिल से चाहा।"
(सच्चा प्रेम कभी मरता नहीं, वो बस छिप जाता है...)
राजा विष्णु ने अपना जीवन धर्म और राज्य के बीच बाँट दिया था। वर्षों बीत चुके थे। अब वो वृद्ध हो चला था।
राज्य उसके पुत्र के हाथों में था, और विष्णु अब एकांत में — उसी पुराने आश्रम में — दिन बिताता था। चुपचाप। एक गुमनाम तपस्वी की तरह।
पर हर पूर्णिमा को, ठीक सूरज डूबने से पहले, वो एक थाली अपने हाथों से सजाता।
मिट्टी का दीपक, एक फूल, और एक चिट्ठी…
कोई नहीं जानता वो किसके लिए थी।
🕯️ शिष्य पूछते
“गुरुदेव, आप किसके नाम दीपक जलाते हैं?”
विष्णु सिर्फ मुस्कुराता।
"जो कहा नहीं गया... वो ही मेरी पूजा है।”
एक रात, आश्रम में एक वृद्ध स्त्री आई। चेहरा घूंघट में था। कमज़ोर चाल, हाथों में पुरानी पोटली।
उसने रसोई में प्रवेश किया और कहा —
“राजा विष्णु अब कहाँ हैं?”
शिष्य बोले —
“अब वो केवल गुरुदेव हैं। आप कौन?”
उसने सिर्फ इतना कहा —
“मैं... जिसकी कथा कभी लिखी नहीं गई। सिर्फ जिया गया।”
गुरुदेव विष्णु ने जैसे ही उस स्त्री को देखा, आँखें छलक पड़ीं।
“राध्या…?”
वो सिर झुका कर बोली —
“नहीं राजन… राध्या तो बहुत वर्ष पहले समाधि ले चुकी। मैं... उसकी छोटी बहन हूँ। लेकिन जाते जाते वो मेरे लिए कुछ छोड़ गई थी... आपके लिए।”
उसने एक चिट्ठी दी।
विष्णु ने कांपते हाथों से उसे खोला:
> “राजन,
मुझे जाना पड़ा, क्योंकि आपकी दुनिया बड़ी थी, मेरी सिर्फ आप तक सीमित।
लेकिन हर जन्म में मैं बस आपके साथ रहना चाहती थी।
इस जन्म में, मैंने अपने प्रेम को पूजा में बदल दिया।
और मैं चली गई…
ताकि आपको मुक्त कर सकूं।
ये अंतिम भेंट है – मेरा अंतिम प्रणाम।
– जो कहा नहीं गया।”
विष्णु निःशब्द रह गया।
“समाधि?” उसने खुद से पूछा, जैसे अपनी आत्मा से।
जब तक वो स्त्री जा चुकी थी।
किंतु उसी रात शिष्यों ने आश्रम के पीछे एक पुरानी कुटिया में एक दीपक जलता देखा।
जब वे गए, वहाँ कुछ नहीं था… सिवाय उस मिट्टी की पोटली और एक चूड़ी के।
विष्णु वहाँ खड़ा रहा…
और सिर्फ इतना बोला:
> “राध्या, तुमने इस जन्म में मुझसे कुछ नहीं माँगा,
लेकिन आज मैं मांगता हूँ…
अगले जन्म में अगर मैं राजा न भी रहूं,
तो भी तुम मेरी रानी बनना…
बस एक बार…
कह देना… जो अब तक कहा नहीं गया।”
> वो कौन थी — जो अंतिम रात आई?
क्या सचमुच वो राध्या
नहीं थी?
या राध्या ने फिर एक बार त्याग किया —
अपनी पहचान छुपाकर सिर्फ उसके दर्शन के लिए…
कुछ बातें कभी कही नहीं जातीं…
क्योंकि प्रेम जब चरम पर होता है,
तो वो खुद ही… “जो कहा नहीं गया” बन जाता है।
W.Brajendra