Kimbhuna - 21 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | किंबहुना - 21

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किंबहुना - 21

21

सुबह उठते ही भरत ने मोबाइल देखा तो होमस्क्रीन पर आरती का एक नया मैसेज झिलमिलाते देख इतना उत्साहित हो गया कि दिल धड़कने लगा। उसे तो उम्मीद ही नहीं बची थी। क्योंकि आरती ने अरसे से उसके मैसेज तक चैक नहीं किए थे। चैट बिना देखे क्लीयर करती रही थी। लेकिन उसने अत्यन्त चपल हो उठी अपनी तर्जनी से जैसे ही टच किया, मैसेज खुल गया, जिसे पढ़ कर उसके छक्के छूट गए। फिर वह बौखला गया और उसने आरती को लिखा कि- तमाशा शुरू कर दिया है तो अब तुम इसका असर देखना... इतनी आसानी से नहीं छोड़ देंगे, जीना मुहाल कर देंगे। भरे समाज में रिश्ता जोड़ा था, वहाँ आकर तोड़ना होगा! एक-एक बात का जवाब देना होगा। हमारी कमी बताना पड़ेगी! ऐसे भाग कर चैन से जी नहीं पाओगे। ढाई-तीन साल तक पति-पत्नी की तरह करम-कुकरम सब किए अब...

आवेग में उँगली सेंडिंग की पर लग गई और अधूरे वाक्य के साथ ही मैसेज सेंड हो गया। तब भरत ने सोचा कि अब फँस भी सकता है! इसी को आधार बना कर यह औरत तो मुझे अरेस्ट करा सकती है। यह तो सचमुच वाहियात औरत है, ओह! इससे मैंने दिल क्यों लगाया...। गहरे अफसोस में वह रोने लगा। फिर उसने दुबारा वाट्सएप खोल कर माफी माँगना चाही तो, देखा उसे ब्लाॅक कर दिया गया है। अब क्या करे, चला जाए वह...। तभी सोचा, फेसबुक मेसेंजर का यूज करता हूँ। लेकिन फेसबुक खोली तो देखा, वह तो फेसबुक से भी गायब थी। ओह! यहाँ से भी ब्लाॅक कर दिया। तब जल्दी से वह फोन के मैसेज बॉक्स में गया, लिखाः आरती-अत्तू! सुनो तो, तुम इस तरह खफा न होओ, हम तो सात जनम संग रहने की कसम खाए रहे...

इतना ही बहुत, ज्यादा जाएगा नहीं, यही सोच सेंड किया, पर रिसीव नहीं हुआ!

घबराहट और गुस्सा इतना बढ़ गया कि अब वह फट ही पड़ेगा! कॉल लगाने नम्बर डायल कर दिया, तुरंत! मगर फोन तुरंत कट गया। फिर किया तो फिर। ओह! नम्बर ब्लाॅक कर दिया, उसके मुँह से बड़ी बुरी बद्दुआ निकल गई।

क्या करूँ! कुछ समझ में नहीं आ रहा था।

आता भी कैसे? इधर वह कार्पोरेट जगत की शाॅर्प माइंडेड पर्सनेलिटी शीतल सरोज से हाॅट लाइन पर जुड़ी थी। गोया, हरेक एक्टिविटीज पर हेड ऑफिस से जरूरी निर्देश मिल रहा था और उसका तुरंत पालन हो रहा था। सोशल मीडिया और सेल फोन से ब्लाॅक कराने के बाद जिसने कहा था, अब तुम उस प्रकरण को भूल अपने असली काम में लग जाओ। हिना पब्लिकेशंस का मैं सीईओ और फाउंडर हूँ, तुम्हें उसका एडीटर बनाता हूँ।

समूह में आपका बहुत सम्मान और विश्वास है। वहाँ हम घोषित कर देते हैं कि आप हिना पब्लिकेशंस की एडीटर नियुक्त कर दी गई हैं। आप अपनी ओर से एक यह आमंत्रण डाल दीजिए:

प्रिय समूह सदस्य-गण! आप अपनी बौद्धिक क्षमता, कठिन परिश्रम से जो कुछ भी रचते हैं, हम उसे आपके स्वयं के नाम से विश्व-साहित्य पटल पर रखने का संकल्प लेते हैं। इस हेतु आपके रचे साहित्य को हम प्रिंट बुक्स में देने के साथ ही ई-बुक्स में भी देंगे जो आॅनलाइन या डाउनलोड करने पर आसानी से पढ़ी जा सकेंगी।

इस हेतु तीन योजनाएँ दी जा रही हैं:

एक- यह कि समवेत संकलन हेतु आप अपनी सात-सात गजलें, गीत, कविताएँ और लघुकथाएँ भेजें, जो गजल, गीत, कविता और लघुकथा संग्रह की अलग-अलग पुस्तकों में संग्रहीत की जाएँगी। प्रकाशन उपरांत जिनकी आपको दस-दस प्रतियाँ भेज दी जाएँगी।

दो- यह कि आप अपनी एकल कृति के प्रकाशन हेतु किसी भी विधा- गीत, गजल, कविता, विविध छंद, लघुकथा, उपन्यास, नाटक, निबंध, संस्मरण, डायरी, रिपोर्ताज, उपन्यास की पांडुलिपि भेजें जिसे हम सहर्ष प्रकाशित कर उसकी कम से कम 100 प्रतियाँ आपको प्रदाय करेंगे।

तीन- यह कि समूह में पोस्ट की जा रही सभी विधा की रचनाओं को त्रैमासिक पत्रिका में संकलित किया जाएगा, समूह के सभी सदस्यों को यह पत्रिका उनके पते पर डाक/कूरियर द्वारा भेज दी जाया करेगी। इस हेतु अपने पोस्टल एड्रेस मय शहर के पिनकोड और मोबाइल नम्बर सहित उपलब्ध कराएँ!

-संपादक, आरती

शीतल की आज्ञा का पालन करते हुए आरती ने तुरंत यह संदेश समूह में लगा दिया तो बधाइयों का ताँता लग गया। मोबाइल पर दिन भर मैसेज टोन आती रही। अंत में शाम को शीतल ने बधाई देते हुए एक और संदेश लगाया:

पत्रिका के साथ पुस्तक विमोचन-प्रकाशन भी:

१.समूह साथियों की सद्यः प्रकाशित पुस्तकों का विमोचन पत्रिका-विमोचन के साथ ही किए जाने का निर्णय लिया गया है।

२.पत्रिका त्रैमासिकी होगी। जिसका वार्षिक सम्मेलन आयोजकों की व्यवस्था से अलग-अलग शहरों में हुआ करेगा। इस अवसर पर सदस्य साथियों की सद्यः प्रकाशित पुस्तकों का विमोचन कराया जाता रहेगा।

३.सदस्यों की सहमति से उनकी पुस्तकों का प्रकाशन हिना पब्लिकेशंस से कराया जाएगा। जिनके विज्ञापन, प्रचार-प्रसार, समीक्षा-चर्चा आदि की जवाबदेही भी हमारे प्रकाशन की होगी।

४.पुस्तकों की वितरण व्यवस्था पत्रिका के साथ सह-प्रकाशन के रूप में की जाया करेगी।

५.अपनी पांडुलिपि वर्ड फाइल में आरती जी की मेल आईडी पर भेजें।

अब आरती को लग रहा था कि उसके सुदिन आ गए हैं और दुर्दिन जा चुके हैं। उसने चैन से बनाया-खाया और बिस्तर पर लेट रही। आज सिर में कोई शूल नहीं उठ रहा था। आज उसे खाँसी भी नहीं आ रही थी। आज दिल उमंग से भरा हुआ था। शीतल के प्रति मन में सहज ही स्नेह उमड़ रहा था। हर्ष तो सो गया था, मगर रुखसाना यहीं थी और पढ़ रही थी। इसलिए मोबाइल उसने ऑफ मोड में डाल रखा था। इंतजार कर रही थी कि लड़की सो जाए तो आज वह शीतल को विश कर दे! इतने दिनों में आज वह उससे मधुर स्वर में बात करना चाहती थी। मगर उसने किताब और बत्ती बंद नहीं की तो वह अपने रजिस्टर उठा कर बाहर वाले कमरे में जाती हुई बोली, थोड़ा-सा काम करना है, तुम टाइम से सो जाना!

सुन कर रुकू ने सिर हिला और वह दरवाजा भेड़ बैठक कक्ष में आ गई और भीतर से गेट बंद कर लिया। फिर उसने वाट्सएप आॅन किया। एक साथ ढेरों संदेश आ गए। बधाइयों का ताँता लगा हुआ था। उसकी अनुपस्थिति में शीतल सभी का आभार व्यक्त कर रहा था और उसे बार-बार आवाज दे रहा था, अजी मोहतरमा, कहाँ हैं, आप! देखिए तो कितने लोग कब से प्रतीक्षा में घड़ियाँ गिन रहे हैं!

इतनी चाहत, इतनी जरूरत, इतना महत्व पा उसका दिल और भी जोश में भर गया। अपनी धमाकेदार उपस्थिति के साथ उसने लिखा: साथियों, आपके स्नेह और सम्मान के लिए आभार बहुत छोटा शब्द है। इसलिए हम आभार, धन्यवाद, शुक्रिया अदा कर उसकी कीमत कम नहीं करना चाहते। आरदणीय सरोज सर ने जो तोहफा दिया है, हम उसके लायक हैं या नहीं, हम खुद नहीं जानते! पर ये विश्वास जरूर है कि आपके सहयोग से हम उनके विश्वास पर खरे उतरेंगे और वह करके दिखा देंगे, जो उनकी ख्वाहिश है...। मगर इस कुंज की नैया के खिवैया तो वही हैं। आप सभी से मिले ये सुंदर गुलदस्ते मैं उन्हीं को सौंपती हूँ।

और उसका आना था कि शीतल ने लिखा: धन्यवाद आरती, धन्यवाद मित्रों, शुभरात्रि।

तो आरती ने भी लिख दिया, शुभरात्रि, सब्बाखैर!

मगर दोनों एक-दूसरे के इनबॉक्स में आ गए:

ऐइ- आज दिन भर कहाँ रहीं? शीतल ने पूछा तो आरती ने लिखा, फोन लगाइए साहेब, उँगलियाँ थक जाएँगी, लिखा न जाएगा!

भला क्यूँ!

आप नहीं समझेंगे, फोन मिलाइए... मिलाइए ना!

शीतल ने तुरंत फोन लगा दिया। तो आरती ने एहसान के पहाड़ तले दबे दबे भारी आवाज में कहा, आप हमारे लिए इतना क्यों कर रहे हैं, साहेब!

कुछ तो स्वार्थ होगा! वह हँसा।

क्या है, जी! हम भी तो सुनें...

सुनाएँगे, जब वक्त आजाएगा!

कब!

बहुत जल्द।

नहीं, वो वक्त कभी न आएगा। उसने निराशा से कहा।

क्यों नहीं आएगा, आप अजमेर तो जाएँगी, पुरस्कार लेने!

हाँ!

तो हम भी आ जाएँगे, वहाँ!

लेकिन आपको बुलाया न जाएगा, तो क्या हमें अच्छा लगेगा!

क्यों नहीं, हमें तो अच्छा लगेगा आपको सम्मानित होते हुए देख कर...

आप इतना चाहते हैं हमें! उसने कहा, फिर कहा, आप इतना क्यों चाहने लगे हमें!

ये चाहना न चाहना अपने हाथ में नहीं होता, मेम!

शीतल ने एक सच कहा था, आरती ने महसूस किया- वह भी तो प्रवेश को, आलम को या भरत को चाह कर भी न चाह सकी! हम किसे चाहें, यह शायद हमारे हाथ में नहीं, नसीब में होता है, उसने सोचा।

खैर। छोड़ो, वह बोली, हमें इसमें क्या करना होगा?

वक्त आने पर बता देंगे।

पर हम तो कुछ जानते-तानते नहीं।

जानती हैं, आप सब कुछ जानती हैं!

अरे- नहीं जानते ना!

तो जान जाएँगी ना!

कब?

काम शुरू होते ही!

नहीं जान पाएँगे!

तो हम सिखा देंगे।

कहाँ?

कहा न, अजमेर में!

पर एक दिन में कैसे? उसने ताज्जुब से पूछा।

एक दिन में नहीं तो हफ्ते भर में... आबू के टूर पर चलेंगे वहाँ से!

न, हम आपके साथ कहीं नहीं जाएँगे! वह नखरा-सा करती हँसी, वैसे ईयरली टूर मिल रहा है, ले सकते हैं...

तो लीजिये ना, अधिक न सही, हफ्ते भर का...

कहा न, हम आपके साथ कहीं न जाएँगे!

अच्छा ये बात!

हाँऽजी! उसने आवाज खींच कर कहा, फिर राज भरे स्वर में बोली, पता है, आज हम दूसरे कमरे में आके बत्ती बंद कर आपसे बात कर रहे हैं!

अरे!

घर में बेटी है ना!

तो यहाँ आ जाओ ना, हम तो अकेले पड़े हैं!

कैसे, हम धरती के दूसरे छोर पर हैं, साहेब! उसने निराशा में निश्वास छोड़ा। और फोन काट दिया।

आरती जब तक बेडरूम में पहुँची, रुकू किताब पर मुँह रख कर सो गई थी। दरअसल, वह पढ़ नहीं रही थी, मन ही मन अपने स्टेप फादर से बात कर रही थी। उनसे माफी माँग रही थी। पर उसमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि यह बात कभी अपनी ममा को बता सके।

आरती ने उसके सरहाने से पुस्तक खींच कर तकिया लगा दिया और खुद भी उसकी बगल में लेट गई। उसके दिमाग में अब फिर एक द्वंद्व था। वह समझ नहीं पा रही थी कि वह फिर तीसरी बार इस जानिब कदम क्यों बढ़ा रही है! क्या इसीलिए कि उसके मन में स्वजाति प्रेम करवट बदल रहा है। बिरादरी भीतर जाने की हसरत बाकी रह गई है? जिस बोध के चलते उसने प्रवेश सोनी को ना कहा और आलम को, उसके परिवार और समाज को मन से कभी स्वीकार न कर पाई! और इसी हिचकिचाहट में भरत और उसके समाज से शुरू से ही कन्नी काटती रही। राकेश को छोड़ने का क्षोभ उसके मन से गया नहीं है। लगता है, जनम अकारथ चला गया। लगता है, बिरादरी भीतर होती तो आज कितनी इज्जत, मान-सम्मान और सहारा होता। पापा द्वारा बचपने में बताई गई अपने जातीय गौरव की गाथा उसके मानस पटल पर पत्थर पर खुदी इबारत की तरह अंकित हो गई थी। उन्होंने बताया था कि- कायस्थ भारत में रहने वाले सवर्ण हिन्दू समुदाय की ही एक विशेष जाति है। गुप्तकाल के दौरान कायस्थ नाम की इस उपजाति का उद्भव हुआ। पुराणों के अनुसार कायस्थ प्रशासनिक कार्यों का निर्वहन करते हैं।

तब वह पाँचवीं, छठवीं में रही होगी! उस वक्त अनन्त जिज्ञासा होती है, हम नया-नया बहुत कुछ सीखने के दौर से गुजर रहे होते हैं। और उस वक्त जो सुन-समझ-याद कर लेते हैं, उसे कभी भूलते नहीं...। परम कौतूहल से भरी वह पूछती, पापा, कायस्थ का मतलब क्या होता है?

तो वे प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहते, बेटा! वेदों के अनुसार कायस्थ का उद्गम ब्रह्मा ही हैं। उन्हें ब्रह्मा जी ने अपनी काया की सम्पूर्ण अस्थियों से बनाया था, तभी इनका नाम काया-अस्थि यानी कायस्थ हुआ।

तो हम लोग पंडित हैं ना! वह उत्साह में पूछती। क्योंकि उन दिनों वह मम्मी के साथ नित्य-प्रति मंदिर जाती, जहाँ एक लम्बी चोटी, घुटे सिर और चैड़े माथे पर त्रिपुंडधारी पंडित जी उसे बहुत आकर्षित करते थे।

तब वे समझाते कि- बेटा! हिंदू धर्म की मान्यता तो यही है कि कायस्थ

धर्मराज जी के लिखिया मुंशी श्री चित्रगुप्त जी की संतान हैं तथा देवता कुल में जन्म लेने के कारण इन्हें ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों धर्मों को धारण करने का अधिकार प्राप्त है। लेकिन तुम्हें बाईयों से तिलक काढ़ कर कथा नहीं बाँचना, वे हँसते, और न हाथ में तलवार ले क्षत्राणी बनना है... हमारी अत्तू को तो डॉक्टर बनना है! वे अतिशय लाड़ लड़ाने लगते।

और वह मुँह फुला लेती, हम तो कविताकार बनेंगे, डाक्टर-वाक्टर नहीं! तब वे समझाते, कि- मुन्नू-ओ! जरूर बनना कविताकार, कवि-साहित्यकार तो कायस्थ कुल की शान हैं, पर मानव-सेवा के लिए डॉक्टर जरूर बनना बिटिया रानी!

आज वह सोचती है कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है और उसे समूह में ही रहना चाहिए। समान आचार-विचार, रहन-सहन, रीति-नीति में ही कल्याण है और सद्गति! ये जातियाँ आवश्यकता की ही उपज हैं, एक दिन में नहीं बन गईं। इन्हें तोड़ने वाले जनम भर पछताते ही हैं। क्योंकि आनुवांशिक रूप से हम अपने जातीय गुण लेकर पैदा होते हैं जो पराई जाति में जाने पर टकराने लगते हैं। आस्था और धर्म न सही, पर हर मनुष्य की एक जातीय प्रकृति तो होती है!

पर यह बात वह रुकू के दिमाग में नहीं भरेगी।

उसे आलम और उस समाज से सख्त नफरत है, उसकी जिंदगी तबाह हो गई।

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