Kimbhuna - 15 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | किंबहुना - 15

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किंबहुना - 15

15

दफ्तर में सार्वजनिक अवकाश था, मगर ऑडिट के सिलसिले में नीलिमा और आरती दोनों को बैठना पड़ा। तो मौका पाकर नीलिमा ने बात उकसाई, शादी कब कर रही हो आरती!

यकायक अप्रत्याशित प्रश्न सुन वह चैंक गई। फिर संभल कर बोली, जल्दी नहीं, पहले दोनों का तलाक तो हो जाए!

तब कहा कि- तो अब तुम अपने ऊपर चैकीदार बिठाओगी!

क्या मतलब आरती चकरा गई।

मतलब यही बहना, नीलिमा ने समझाई, कि- दुबारा आदमी करके फिर से फालतू में पालतू गाय बनने जा रही हो, तुम!

अरे, ये बात नहीं, वह चिढ़ती सी बोली, हमें न पहले शौक था, न अब है!

वही तो पूछ रहे, एक बार तो मुश्किल से पिण्ड छुड़ा पा रही हो, सो भी अभी छूटा नहीं!

सही है, पर अपने लिए नहीं बच्चों की सरपरस्ती के लिए कर रहे हैं! कह कर उसने पीछा छुड़ाना चाहा। पर वह तो आज हाथ धोकर पीछे पड़ गई थी! उसने कहा- जैसे रोटी वाली बाई की दाल में कभी कंकड नहीं होता, ऐसे सेलरी बेस्ड केयरटेकर ही सच्ची हिफाजत करते हैं!

यानी तुम हर सम्बंध के केंद्र में अर्थ देखती हो?

यह सच है, हर सम्बंध के केंद्र में अर्थ ही प्रमुख होता है, मेरी जान! और स्त्री-पुरुष के सम्बंध के केंद्र में सिर्फ सेक्स।

सब बकवास!

बहुत गहरा यथार्थ! समझो...

उसने कम से कम एक घंटा दिमाग खाया। तब घर आकर आरती ने ठंडे दिमाग से सोचा कि जिसे वह दुश्मन मान रही थी, वह तो शुभचिंतक निकली! ठीक ही तो कहती है, बच्ची कल के लिए जवान होगी और आजकल तो सगे बाप का भरोसा नहीं, ये तो सौतेला है! भविष्य की आशंका से मन काँप उठा उसका। और सोचते-सोचते सिर दर्द से फटने लगा कि यह क्या हुआ, मैं तो पहले की तरह फिर चूक गई!

खेल के मैदान से लौटते ही हर्ष माँ के गले से लिपट गया। उसने कहा, हटो, हटो! सर दर्द कर रहा है! तो वह तेल की शीशी उठा लाया और मालिश करने लगा। अनायास आरती के आँसू बहने लगे। रोते-रोते जनम हो गया, ये आँसू कभी थमने का नाम ही नहीं लेते। पुष्पा का भी यही अनुभव कि सुख बदा होता है तो एक ही आदमी से मिल जाता है। नहीं बदा होता तो लाख बदलो, जनम भर ठोकरों के सिवा कुछ नहीं मिलता। अब असल मुसीबत यही कि इस सगाई को कैसे तोड़े वह? वैसे भी, जो सुनता है, हँसी उड़ाता है कि अब दो-चार साल बाद बेटी के हाथ पीले करने का समय है कि अपने करवाने का! शर्म से पानी हो जाती है वह। भरत से मिलने का कोई उत्साह नहीं बचता। लेकिन उसे तो सुनहरा चान्स मिल चुका है। अब परिवार में कोई छोटा-मोटा भी फंक्शन हो तो तुरंत फरमान आ जाता है। जाना पड़ता है, और सबके झुक-झुक कर पाँव भी छूने पड़ते हैं। क्योंकि पत्नी तो सम्बंध तोड़ छह-सात साल से मायके जा बैठी है तो यही बची, दुजिहा- भाभी, मामी, चाची, ताई सब कुछ। कितनी विचित्र आदिवासियों की परंपराएँ। तीज-त्योहार। देवी-देवताओं की पूजा-रचा। न सोना, न खाना...दिन भर काम में जुते रहना, रात भर गाना और नाचना। राजवंशी होने से और भी मुसीबत। साल में कम से दस कारज! ऊब गई और पच गई वह तो, अब पिण्ड कैसे छूटे। हा-राम! आसमान से टूटी तो खजूर में लटक गई! नौकरी भी नहीं कर पा रही ढंग से। लिखना-पढ़ना तो चैपट हो ही गया। ऊपर से उसका तुर्रा कि- क्या करना अब नौकरी का! रुकू और हर्ष के बाद कोई जिम्मेदारी ही कहाँ! और इतनी जायदाद है, और हमारी नौकरी। आराम से रहो घर में रानी बन कर!

लेकिन वह जानती है अपनी प्रकृति। बँध कर एक दिन नहीं बैठ सकती। दम घुट जाएगा उसका। सार्वजनिक जीवन की आदी हो चुकी है आरती। इसके पीछे कोई कल छूटे तो आज छूट जाए, पर यह तो न छूटेगा मरते दम तक। उसे तो बेसहारा महिलाओं और बच्चों के लिए ही आजीवन काम करना होगा। न काम सुख चाहिए और न दाम सुख।

अपने क्षेत्रीय साहित्यिक समूह और फ्रेंड सर्किल से सतत और जीवंत संपर्क के लिए उसने एक वाट्सएप ग्रुप बना रखा था। समूह का खाता नित्य-प्रति अलस्सुबह ही दुआ-सलाम और छुटपुट रचनाओं के आदान-प्रदान से खुल जाता। किसी का जन्मदिन आदि होता तो बधाई संदेश जाने लगते। शाम को मोमबत्तियाँ फूँकी जातीं और केक भी खिलाया जाता। दिन भर सभी लोग उसे दीदी-दीदी कहते नहीं थकते। नित्य-प्रति बढ़ रहे सम्मान से उत्साहित वह समूह की सदस्य संख्या नित्य-प्रति बढ़ाती ही जा रही थी। उन्हीं दिनों सोशल मीडिया के मार्फत उसकी नजर एक उभरते शायर शीतल सरोज पर पड़ गई जो एक प्रकाशन भी चलाता था। फेसबुक और ब्लॉग से शुरू हुई एक-दूसरे की रचनाओं की तारीफ से बात वाट्सएप के इनबॉक्स तक आ गई। उसने ऑफर दिया कि हमारा एक वाट्सएप समूह है, आरती कुंज। हमारी इच्छा है कि आप इसमें आ जाएँ! कहें तो जोड़ लें? तब उसने लिखा कि- पहले आप अपना परिचय तो दीजिए!

और आरती ने तुंरत उसके इनबॉक्स में लिख दिया:

साहब! यूँ तो हम खानाबदोश हैं पर पिछले तीन-चार बरस से छत्तीसगढ़ के बलौदा बाजार शहर में रह रहे हैं। पढ़ाई-लिखाई टूटी-फूटी ही समझें! समाज कार्य मे स्नातकोत्तर हैं। और यहाँ रवान स्थित सिंधुजा सीमेंट फाउन्डेशन में सामुदायिक विकास कार्यक्रम के अंतर्गत कार्यक्रम अधिकारी के पद नौकरी कर रहे हैं। लिखने पढ़ने का शौक जाने कैसे बचपन से ही लग गया था। पहली रचना आठवीं कक्षा में लिखी जो नवभारत में प्रकाशित हुई। उसके बाद कुछ कविताएँ और कहानियाँ भी प्रकाशित हुईं। फिर साहित्य सुमन, साहित्य समीर, दस्तक, हरिगन्धा, काठमाँडू से प्रकाशित नेवा हाइकु, युद्ध, शोध, दिशा, काव्य रंगोली, जगमग-दीप, ज्योति, और कई वेब पत्रिकाओं- हिंदी समय, अनुभूति, साहित्य कुंज, गर्भनाल, सहज साहित्य, हिंदी हाइकु, पतंग की उड़ान, साहित्य पीडिया आदि में कविताएँ प्रकाशित हो चुकी हैं।

पिछले दिनों सुरेंद्र वर्मा की कृति पढ़ी- मुझे चाँद चाहिए... बहुत प्रभावित हुए।

जवाब में उसने पूछा, कोई संग्रह नहीं छपा?

आरती ने लिखा, संग्रह तैयार तो कर लिया है, पर अभी किसी को दिया नहीं। हाँ- छह-सात साझा संग्रहों में रचनाएँ जरूर आ गई हैं।

संग्रह हमें दीजिएगा, किसी और को नहीं! उसने लिखा।

बिल्कुल साहेब! उसने कौल कर दिया।

फिर उसने पूछा, और पारिवारिक उपलब्धि?

बेटी को एक स्कूली प्रतियोगिता में कविता के लिए राष्ट्रीय स्तर पर चुन लिया गया है।

अरे- आपकी बिटिया भी कविता लिखती है!

हाँ- साहेब! हमसे अच्छी। उसने तो छठवीं कक्षा में ही मृत्यु पर इतनी बेजोड़ कविता लिखी कि दिग्गज दाँतों तले उँगली दबा गए।

बहुत खूब! और...

और कुछ नहीं, जी! हम, हमारा साहित्य, बच्चे, नौकरी!

शीतल को स्पेस मिल गया।

और जुड़ गया तो वहाँ। गजल सीखने-सिखाने का दौर चल निकला। वह बहुत गुणी था जो आरती की किसी न किसी कविता पर रोज एक पोस्टर बना कर समूह में लगाता और तरह देता। उस तरही मिसरे पर सदस्य गण शेर जोड़ कर गजल बनाने का प्रयास करते। यह सब दो-तीन दिन तक चलता रहता। फुरसत मिलने पर शीतल उन्हें जाँचता-सुधारता। उसका बहुत सम्मान था। उसकी इस्लाह को बड़ी तवज्जोह दी जाती। आरती एडमिन थी और वह समूह प्रशिक्षक। इस नाते दोनों एक-दूसरे के इनबॉक्स में संदेश भेज कर समूह से सम्बंधित बातचीत किया करते। अब आरती की सुबह तो वाट्सएप ओपन कर उसके इनबॉक्स में गुलदस्ता भेज कर ही होती। धीरे-धीरे तय होता जा रहा था कि इसे एक डेली आॅनलाइन मैग्जीन का दर्जा देना है। इसका एक शिड्यूल बनाना है।

बहरहाल, वह खूब खुश थी और भरपूर व्यस्त भी। यह दीगर बात थी कि भरत का जब भी फोन आ जाता और खास कर बुलावा तो सिर में दर्द होने लगता। हालाँकि रेश्मा की शेष फीस उसी ने भरी थी और दूसरे साल की पूरी। इसके अलावा उसने घर में फ्रिज और वाॅशिंग मशीन भी लगवा दी थी। और आरती के रोकते-रोकते टीवी की जगह एलईडी और फाइबर की कुर्सियों की जगह सोफा। लेकिन इस सबके बावजूद बलौदा बाजार की वह एक मनहूस यात्रा उसके लिए सेकेण्ड लास्ट जर्नी हो गई, जिस पर आकर उसने यह मनहूस खबर सुनाई कि- उसका तलाक का केस खारिज हो गया है!

दरअसल, उसकी पत्नी हरेक पेशी पर आती, और उसका वकील बहुत मुस्तैद था। वह एक नामी वकील था, जिसके हाथ से कोई केस निकलता न था। उसने बहुत ठोस प्रमाण प्रस्तुत कर दिए कि- तलाक का कोई कारण ही नहीं है। भरत ने जो भी एलीगेशन लगवाए, सब मिथ्या साबित हो गए। जज भी अड़ गया कि इस भोली आदिवासिन के जीते जी यह तलाक हर्गिज न मिलेगा। यह तो बदनीयती से दिया जा रहा है। क्योंकि भरत दूसरी शादी करना चाहता है। क्योंकि भरत उसे अपनी करोड़ों की चल-अचल संपत्ति से बेदखल करना चाहता है। उसके द्वारा अपनी पत्नी पर लगाए गए बदचलनी, बदमिजाजी, और शारीरिक अक्षमता के सारे आरोप मिथ्या हैं। लिहाजा केस निरस्त किया जाता है।

उसे इसकी उम्मीद न थी। उसे बड़ा गहरा सदमा लगा। आदेश की कॉपी लेकर वह भिलाई नहीं गया, सीधा बलौदा बाजार चला आया। हर्ष उसे देखते ही खिल गया। वह आ जाता तो उसकी चपलता देखते ही बनती थी। आते ही पापा-पापा कह कर लिपट जाता और रात को उससे चिपट कर ही सो जाता। यह बात अलग कि सो जाने पर वह उसके सिर के नीचे से अपनी बाँह निकाल बाहर के बैठकनुमा रूम में आ जाता। जहाँ थोड़ी देर बाद आरती आकर उसका बिस्तर गर्म कर उठती। मगर आरती को आज का उसका यह अनपेक्षित आगमन अखर गया। उसके दिमाग पर नीलिमा के विचारों और उसकी सीख का जबरदस्त असर था। भरत को देखते ही उसकी खिन्नता बढ़ गई। गोया, एकांत में खलल पड़ गया हो! क्योंकि इसके पूर्व वह अपने वाट्सएप समूह सदस्यों की रचनाओं को पढ़ने और उनकी हौंसलाअफजाई में दत्तचित्त थी। गली में कार की आवाज के साथ ही ध्यानभंग हुआ और आशंका उभरी तब तक हर्ष की हर्ष ध्वनि गूँज उठी, माँआँ-माँआँ पापा आ गए! उत्साह के अतिरेक में वह बाहर की ओर दौड़ गया था। आरती को चिढ़ हुई कि- इस तरह तो तुम बिना बताए रोज आ जाया करोगे! मगर उसने प्रत्यक्षतः कुछ कहा नहीं। शाम ढल रही थी। खाने के बाद वे लोग घूमने के लिए बाजार गए। बलौदा बाजार एक छोटा-सा शहर। बाजार कुछ खास नहीं। एक ही मुख्य सड़क। पर हर्ष के लिए तो वही चैपाटी ठहरी। सो, उसकी इच्छा जान भरत उसे और आरती को लेकर रोहित आइसक्रीम पार्लर पहुँच गया। उसके बाद वे लोग घूमते-घामते रायपुर तिकोनिया तक आए, फिर घर लौट पड़े। रास्ते में लैंपपोस्ट की तेज रोशनी में आरती की नजर पड़ी तो पहली बार लगा कि उसकी काली मूँछों की जड़ें सफेद हैं।

आज अचानक आना कैसे हुआ?

वह समझ गई थी। शिड्यूल में आता तो रंगा-पुता आता। तभी उसने कभी जाना ही नहीं कि वह बाल भी रंगता है। रंगती तो आरती भी है, पर शौकिया। वैसे उसके तो अभी काले हैं।

भरत ने कहा, घर चलो, तसल्ली से बैठ कर बताएँगे!

घर तो चल ही रहे, उसने मन में सोचा, अब रात में तुम क्योंकर जाओगे। पर आइंदा से इस तरह बिना बताए आए तो गेट नहीं खुलेगा, सोचते उसने उसकी ओर देखा तो वह अकबका गया, तुमने कुछ कहा! नहीं, वह मुस्कराई। अपनी इस शक्ति को जानती थी कि बिना कहे ही, कह देती है। इसी हुनर के बल पर तो आलम से पार पा सकी।

साढ़े नौ-दस बजे हर्ष जब सो गया, क्योंकि वह डेली जल्दी सो जाता। क्रिकेट का दीवाना था, दिन भर खेलता और थक जाता सो, जल्दी सो जाता, कभी-कभी बिना खाए ही। तब आरती सोते-सोते एक-दो गस्से खिलाती, जिसके बाद उसकी नींद टूट जाती और तब अपने हाथ से खा कर दुबारा सो जाता।

वह जब सो गया तो भरत अपनी जगह उसके सीने से तकिया लगा, उठ कर बाहर के कमरे में आ गया। आरती उस दिन जानबूझ कर बहुत लेट आई। कई बार मिस्डकॉल देने पर। मन नहीं था उसका।

मन क्या भर गया था? नहीं शायद, उसे कम ही तलब होती। तिस पर नीलिमा की सीख के बाद अब वह ऐहतियात वरत रही थी कि बेरुखी से शनैः शनैः दूरी बढ़ जाए और यह मामला भी रफा-दफा हो! शादी तो वह हर्गिज नहीं करेगी, मन में निश्चय कर लिया था।

वह जब आई, भरत हलाकान हो चुका था। आज ही तो उसे उसकी सबसे अधिक जरूरत थी! गोया, आज ही हमने बदले हैं कपड़े जैसा हाल था। रति-प्रसंग के लिए नहीं, मानो कब्र में जाने के लिए।

हाँ-तो जनाब! बीच में क्योंकर आना हुआ, आज! मंद स्मित, मंद हँसी के साथ पूछा उसने।

तुम नहीं जानतीं क्या! उसने नाराजगी से कहा, इतनी देर क्यों लगा दी?

अरे- बाबा, आ तो गए! ऑफिस का ही एक स्टेटमेंट तैयार कर रहे थे, ऑडिट खून पी रहा है! उसने बात बनाने की गरज से कहा। भरत जल्द से जल्द टूट कर मिलना चाहता था। जो बात शब्दों में बताने की हिम्मत नहीं हो रही थी, उसे गहरे स्पर्श, आंगिक भाषा से एक झटके में कह देना चाहता था। उसने झट से दरवाजा भेड़ दिया और लाइट बुझा दी और वह ना-ना करती रह गई, मगर तूफान की तरह अपनी गिरफ्त में ले ली। पसीने के धारे बह उठे और तूफान गुजर गया, तब उसने नीचे से निकल कर अपने वस्त्र पहने और बत्ती जलाई।

फिर नाराजगी दर्शाई कि यह सब और इस तरह उसे कतई अच्छा नहीं लगता।

सुनते ही भरत की आँखें भर आईं, सहसा उसने गीले स्वर में अपनी जानिब से गाज-सी गिराते हुए कहा, पता है, केस खारिज हो गया!

हम तो जानते थे! आरती को जैसे, खुशी हुई। उसने हल्की हँसी के साथ कहा तो उसे सीधे दिल पर चोट लगी। कि वह जिस जबरदस्त सदमे से उबरने आया था, उसमें तो यह शरीक ही नहीं!

उसने धीरज खो दिया और सुबकने लगा, और उसका कंठ काँपने लगा। तब आरती ने पहली बार देखा कि गले की खाल सिकुड गई थी। अचानक आइडिया लगाने लगी कि कम से कम पंद्रह-सोलह साल का अंतर तो होगा। मजे की बात यह कि यह अंतर अब तक नहीं दिखा था। तो बात यही कि गरज थी और नए-नए में सब कुछ अच्छा लगता है।

उसकी मनोदशा से अनभिज्ञ भरत ने उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा, पर तुम फिक्र न करो, साल भर और बचा रिटायरमेंट को। फिर कोई क्या बिगाड़ लेगा, हम शादी कर लेंगे!

तुम्हारा नहीं, पर हमारा तो बिगाड़ लेगा, हमें तो अभी सोलह साल करना है! डेट बढ़ गई तुम्हारे यहाँ की तरह, साठ हो गया तो अठारह साल! कहते उसने जता दिया कि ख्वाब छोड़ दो, आप तो हमसे बहुत बड़े हो!

न करेंगे तो लिव-इन में रह लेंगे, रायपुर वाले फ्लेट में, वह तो तुम्हारा ही है, क्या फर्क पड़ता है?

ऐसे कैसे हमारा...

क्यों, तुम्हारा होने में कितनी देर, कल ही रजिस्ट्री करा देंगे!

अरे- नहीं चाहिए! उसने हल्के-से रोष से कहा।

क्यों... वह आहत हुआ।

छोड़ो, वो आदिवासिन देखी है, कच्चा न चबा जाएगी हम दोनों को...

यह क्या हुआ! भरत के तो हाथों के तोते उड़ गए। जिसके दम पर वह गरजता था, वो तो, ये तो पाँसा ही गलत फिंक गया, दाँव झूठा पड़ गया। भारी सदमे का शिकार वह सीना पकड़ कर रोने लगा। पर आरती ने कोई भावुकता नहीं दिखाई। अब वह और नहीं फँसना चाहती थी। उठ कर अंदर हर्ष के पास चली आई। सुबह जब तक जागी, भरत चला गया था। उसने वाट्सएप खोला, शीतल सरोज के इनबॉक्स में गई, और एक सुर्ख गुलाब भेंट करते हुए लिखाः दुआ का रंग नहीं होता, मगर ये रंग ले आती है! सुप्रभात!

आरती की कविताएँ शीतल को बहुत पसंद थीं। वो उन पर लट्टू था। वह हर प्रकार की कविताएँ लिखती थी। तुकांत, अतुकांत। छोटी-बड़ी। छंद में निबद्ध और छंद मुक्त भी। जिंदगी में पहला कोई शख्स मिला था जो उसकी कविताओं का मुरीद था। वह उसकी दो-चार लाइन की कविता पर ही बड़ी-बड़ी समीक्षाएँ लिख देता। उसकी इन कविताओं पर अपनी समीक्षाओं में भाव-साम्य की दृष्टि से वह सूर, तुलसी, जायसी, मीरा, महादेवी, गालिब, फैज आदि किसी का भी उदाहरण देकर आरती की कविताओं को वह ऊँचाई प्रदान कर देता कि समूह के सदस्य दाँतों तले उँगलियाँ दबा लेते। दिन भर फिर उसकी उस छोटी-सी कविता पर ही चर्चा होती रहती। और वह खुद अपने हाइकु, माहिया, मुकरी या दो मिसरों के एक शेर पर ही इतनी मोहित हो जाती कि सारे अभाव और कष्ट  फीके पड़ जाते। वाट्सएप पर अब वह रोज अपनी डीपी बदलती। चेहरा उसका फोटोजेनिक था। विविध कोणों के फोटो जिनमें सीने के दाहिनी ओर तो कभी बाईं ओर लहराते उसके काले रेशम से बाल नुमाया होते, इतने आकर्षक होते कि सदस्य-गण रोज उन पिक्स को अपने-अपने हेंडसेट में सेव कर लेते। और उसी वाट्सएप समूह में सदस्यों की नित नई आने कविताओं पर अगर वह दो-चार लाइनों में तारीफ कर देती, तब तो वे मुरीद ही हो जाते। चँकि उस समूह का नाम आरती सरोज कुंज था, इसलिए छोटे या बड़े सभी सदस्यगण उस जोड़ी को आदरणीय आरती दीदी, सम्माननीय शीतल सर को सादर नमन से ही खतो-किताबत या कविता आरंभ करते।

समूह का साप्ताहिक शिड्यूल बना दिया गया था। सोमवारी कविता, मंगलवारी गजल, बुधवारा गीत, गुरुवारा दोहा, हाइकु, ताँका, माहिया, मुकरियाँ, कुण्डलियाँ, शुक्रवारी कहानी, लघुकथा, शनिवारी समीक्षा, अंत्याक्षरी आदि तो रविवारीय मुक्त दिवस! अलग-अलग दिनों के लिए अलग अलग संचालक। मगर सरपंची तो दीदी और सर की ही चलती। यों दूर रहते हुए भी शीतल से उसका इतना घनिष्ठ जुड़ाव हो गया कि कभी अकेलापन महसूस नहीं होता। अगर शीतल सा दानिश्वर साथी और यह समूह न होता, तो आज भरत के कारण वह फिर एक बार टूट जाती। क्योंकि यह तो होना ही था। उसका केस तो खारिज होना ही था। विवाह जितना आसान है, तलाक उतना ही दूभर। इसीलिए शरीयत में तीन तलाक का प्रावधान रखा गया कि मनुष्य की आत्मा पर सोशल कांट्रेक्ट कहीं बोझ न बन जाए। खामी यही कि यह अधिकार महिला को प्राप्त नहीं। इसमें संशोधन हो और सभी समुदायों के लिए लागू किया जाय, तब बात बने! क्योंकि विवाह से पूर्व किसी को एक-दूसरे के नेचर पता नहीं होता। कोई ऐसी व्यवस्था होती कि पहले साल-दो साल निकटता प्राप्त कर एक-दूसरे को ठीक से समझ लेते, सहन करना सीख लेते, और तब सोच समझ कर इस जाल में फँसते तो जीवन इतना नर्क न होता। पर समाज तो ऐसा चाण्डाल है कि मेल-फीमेल साथ दिखे नहीं कि वितंडा बना दिया। साल-दो साल का साथ कौन बर्दाश्त करे!

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