Kimbhuna - 13 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | किंबहुना - 13

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किंबहुना - 13

13

रायपुर से लौट कर माँ-बेटी एक-एक दिन गिन रही थीं। यों डूबते दिन के साथ निराशा और उगते के साथ आशा बढ़ रही थी। उन्नीसवें दिन भरत ने बताया कि रुकू को लेकर, साथ ही उसके उपयोग का जरूरी सामान भी लेकर कल सुबह आ जाओ। क्योंकि दाखिले के साथ उसे यही छोड़ कर जाना होगा। खुशी का पारावार न रहा। माँ-बेटी खुशी-खुशी तैयारी में लग गईं। मगर दोनों की इस खुशी में जो फर्क था वह यह कि रुकू तो खूब उत्साहित थी, मगर आरती की आँखें भरी-भरी थीं। सुबह ही पुष्पा को बुला कर घर और हर्ष को उसे सौंप कर वे दोनों बस से रायपुर के लिए चल दीं। दोपहर में जब स्कूल-बोर्डिंग कैम्पस में पहुँचीं, भरत वहाँ पहले से मौजूद मिला। आरती का दिल भर आया कि वह रुकू का पिता न होकर भी एक पिता का फर्ज मुस्तैदी से निभा रहा है। सम्मान और प्रेम पहले से कहीं अधिक बढ़ गया। किंतु जब फीस भरने की नौबत आई, केशियर ने कहा, लाओ दो, तो वह आरती की ओर देखने लगा। तब अकबका कर उसने अपना बैग खोला। लेकर आई थी कि स्वाभिमान दिखाने पेशकश करेगी देने की, पर देना पड़ेगा यह न सोचा था। हल्का धक्का-सा लगा, पूछा कितने? बताया, अभी साढ़े बारह! गिने तो नौ निकले! उसे पता था, नौ ही हैं। भरत की ओर देखा, उसने पर्स खोल शेष पुजा दिए!

आरती को अच्छा नहीं लगा। यानी वे देख रहे थे, तुम क्या लाई हो, कम पड़े तो दे दूँगा! अरे- आपको कौनसी कमी थी! फिर हाथ क्यों सिकोड़ा? क्या तुम्हारी अपनी बच्ची होती तो...मन गिर गया।

विदा करके लौटने लगी तो दिल दर्द से भर गया। भरत ने बहुत रोकी कि आज न जाओ, पर वो रुकी नहीं। उसने झूठ कह दिया कि- पुष्पा कहीं बाहर चली गई है, हर्ष अकेले हैं! तो वह भी मजबूर हो गया। बस में बैठ कर आरती बलौदा बाजार चली आई। आते-आते शाम हो गई थी। पुष्पा ने उसे देखते ही कहा, अरे- दीदी आप तो आ भी गईं! एडमीशन ना हुआ का! फिर उसके पीछे रुकू को न पा पुनः बोली, उन्हें छोड़ आईं का...?

उससे कहते न बना कि- छोड़ आई! आँख बहने लगी। बैठ गई तो पुष्पा ने झुक कर चेहरा देखते पूछा, छोड़ आईं ना! और वह सुबकने लगी तो सिर सीने से लगा लिया, जिसके बाद तो आरती डकरा कर रोने लगी। सीने में इस कदर हूक उठ खड़ी हुई कि चुप कराने की पुष्पा की सामथ्र्य चुक गई। भले वह आँसू पोंछती, पीठ थपकती, खुद भी रोती-समझाती रही कि- बेटी तो पराया धन, उसे तो आज नहीं तो कल जाना ही होगा इस घर से। तुम्हारा तुम्हारे पास रहेगा...। उसने हर्ष को भी खींच कर चपेट लिया जो माँ को रोता देख कर खुद भी रो रहा था। दृश्य लगभग राम-वन-गमन जैसा हो गया था, जब माता-पिता, परिजन सब विलाप कर रहे थे। तब बड़ी देर में पुष्पा ने यही कह-कह कर समझाया कि- दीदी आप तो भाग्यशाली हैं! दो जन आपके अपने तो हैं! हम से पूछो, हमार मन तो सुख-दुख का कोई साथी ना!

सच था, पुष्पा की कहानी उससे भी अजीब थी। पहले वाला निखट्टू निकला तो शादी टूट गई। बाप अपने घर ले आया। दूसरी जगह बिठाया तो उसका परिवार इतना बड़ा कि वो बेचारी बाँदी-सी दिन-रात लगी रहती। खाने-पीने की अलग तंगी। और वो दूजिया नशे में कभी-कभी खाल उधेड़ देता, सो अलग। तीन साल नरक गोड़ा। और कोई फल भी ना लगा तो छोड़ आई उसे भी। बाप के घर भी गुजारा नहीं। भला हो आरती का जिसने अपने कार्यक्रम से जोड़ ट्रेनिंग दिलवा दी। गुजारा होने लगा। पर अकेली औरत, सौ शामत! तिस पर कोई अपना नहीं दुख दर्द बाँटने को। सो, वह खुद भी रो रही थी, और हर्ष भी, इसलिए आरती को अपने आँसू पोंछना पड़े। हर परिस्थिति में उसे यही तो करना पड़ा। कि अपने ही आँसू सदा पीने पड़े। रोकर दिखलाती भी तो किसे? अपना दुख अपने भीतर सदा जज्ब करना पड़ा उसे।

पुष्पा अक्सर रुक जाती थी। रात को वहीं रुक गई और खाना-पीना करने के बाद हर्ष को अपने सीने से लगा, सो गई। पर भरत के व्यवहार ने आरती को फिर एक बार आलम की याद दिला दी थी जो दो-तीन महीने में जयपुर चक्कर लगाने लगा था। जमकर इसलिए नहीं रहता क्योंकि जबलपुर में उसकी औरत थी। इस बात का आरती को अब पक्का भरोसा हो चुका था। पर वह इसलिए निभा रही थी क्योंकि तलाक आसानी से होने वाला था नहीं। नई नौकरी, पेट में बच्चा! बात फैल जाती तो जीना दूभर हो जाता। और आलम इसलिए दबा था कि उसका कर्ज अभी तक नहीं पटा था। और अब तो कर्ज चुकवाने का वह स्रोत भी थी, और माध्यम भी।

अब उसने एक नया तरीका अपनाया। उसने अपने सभी खास-खास रिश्तेदारों को चिट्ठी लिखने की योजना बनाई जिसमें अपने दुख दर्द की कहानी लिखी जाए और उस पर दया करके रिश्तेदार पैसे भेज कर मदद करें। और इस काम की जिम्मेदारी आलम ने उसके मत्थे मढ़ दी।

उसने आरती से कहा कि- तुम सब को ऐसी चिट्ठियाँ लिखो जिनमें अपने दुख दर्द और भुखमरी की दुखभरी कहानियाँ हों। हालाँकि आरती इस के लिए राजी नहीं थी। उसने आलम से कहा भी कि- कौन किसकी मदद करता है। अपनी मदद खुद ही करनी पड़ती है। और पैसे से मदद तो कोई भी नहीं करता, तुम पर क्या थोड़ा कर्जा है? लोगों के लाखों रुपए चढ़े हैं! लाखों रुपए चाहिये कर्ज चुकाने के लिए, कौन देगा? सबका जीवन है, सब की अपनी मुश्किलें हैं। किसी से पैसा माँग कर खुद शर्मिंदा होना और सामने वाले को शर्मिंदा करना ही है और कुछ नहीं। तो वो चिल्ला उठा, बोला, तुम्हें मेरी कोई बात सही नहीं लगती, हर बात में टोकती हो। माँगेंगे नहीं तो पैसा कहाँ से आएगा। कर्जा यूँ ही चढ़ा रहेगा। तुम्हारी दस-बारह हजार की पगार से कितना पट जाएगा?

उसने कहा, फिर भी पटाना तो इसी पगार से पड़ेगा तुम तो कुछ कमाओगे नहीं!

कमाता नहीं तो अभी तक परिवार तुम्हारी माँ ने पाला होगा?

उसे डर लगा कि अब इसने कहीं आपा खो दिया तो नई जगह पर थू-थू हो जाएगी। खामोश रह गई।

आलम बोला, मकान मालिक अलग किराया माँग रहा है। क्या करूँ खुद को बेच दूँ, या मर जाऊँ कहीं जाकर! और उसने कोई जवाब नहीं दिया, जैसे सुना ही नहीं! तो वह समझाने पर उतर आया, देखो, अभी बाहर वालों का है, इसलिए बहुत दबाव है जब रिश्तेदारों का रहेगा तो हम दोनों मिल कर धीरे-धीरे पटाते रहेंगे!

उसे भी समझ आया कि इसी के रिश्तेदारों का तो होगा! पटे न पटे उसकी बला से। अभी तो जान छुड़ाने में ही फायदा!

यों मजबूर होकर उसे ये काम भी करना ही पड़ा। वैसे भी आलम की हर बात मानना ही पड़ती थी। रास्ता भी यही होता, कोई और नहीं। अब चिट्ठियाँ लिखना शुरू हुआ। जिसमें उसे सब जानते हुए भी लिखना पड़ा कि आलम बहुत मेहनत करता है। पर दुकान छिन चुकी है और बहुत ढूँढ़़ने पर भी कोई काम नहीं मिल रहा। माँ बीमार है। घर का किराया कई महीनों से नहीं दिया गया...। यही सब यूँ लिखवाया गया कि पढ़ने वाला रो दे। नौकरी की बात छुपा ली जाती और दो-दो बच्चों का खर्च तथा बीमार माँ और बहन के इलाज का रोना रोया जाता। आलम बोलता जाता और वह लिखती जाती।

बड़े अब्बा यानी आलम के ताऊ, मामा, मौसा और जो भी खास लोग थे, सब को चिट्ठियाँ लिखवा दी गईं। उसे बहुत बुरा लगा ये सब करते हुए, पर करना पड़ा।

चिट्ठियों ने असर दिखाया और आलम के एक मामा और बड़े अब्बा जी मदद के लिए आगे आ गए। पर उनका कहना था कि आलम पर भरोसा नहीं किया जा सकता। तो बड़े अब्बा ने पैसे देकर आलम तक पहुँचाने की जिम्मेदारी मामा को दी। साथ ही आलम को ये हिदायत दी गई कि इसके बाद उसकी कोई मदद नहीं की जाएगी।

यों आलम के मामू पैसा लेकर आए। पोल खुलने के डर से आलम ने उसे बच्चों सहित पहले ही जबलपुर बुला लिया था। वे जैसे ही अंदर आए आरती ने सर पर पल्लू लेकर उनके पैर छुए। उन्होंने आशीर्वाद दिया। उसके बाद चाय-पानी लेकर नहाने धोने में लग गए। ये पता था कि मामा पैसे लाए हैं। आरती ने तब तक खाना बनाया। खाना खाकर मामा ने बताया कि बम्बई से बड़े अब्बा ने पैसे तो भेजे हैं, पर उनकी कुछ शर्ते हैं। वो ये कि पैसा आलम के हाथ में नहीं दिया जाएगा। तब आरती ने मामू से कहा कि- बड़े अब्बू ने जो भी शर्तें रखीं हैं, आप वही कीजिए। उन्होंने उसे देख कर खुश होते हुए कहा, लक्ष्मी-सरस्वती जैसी बहूबेगम पाकर भी ये लौंडा नहीं सुधरा तो कब सुधरेगा। उन्होंने आरती के हाथ में सारे पैसे दे दिए और बोले, बैठो, इनका हिसाब बनाना है।

उन्होंने खुद अपने हाथों से लिस्ट तैयार की। सबके नाम लिखे, किसे कितना पैसा चुकाना है। जितने भी खतरनाक लोग थे और जो पैसा न देने पर धमकियाँ देते थे, घर आते थे उनके पैसे को प्राथमिकता से चुकाने पर विचार करके ही पैसा दिया गया था। मामा ने सबके लिए पैसे अलग-अलग किए। मामा ने खुद जाकर लोगों के पैसे चुकाए और सब को सख्त हिदायत दी कि- आलम कितना भी माँगे, अब किसी भी हालत में दुबारा कर्ज न दें।

यों छोटी-छोटी कुछ राशियाँ बाकी रह गई थीं। शेष सारे कर्ज चुका दिए गए थे।

कर्ज चुकाने के बाद मामा ने आलम को बिठा कर समझाया कि- अब कुछ नौकरी धंधा कर परिवार चला, घर गृहस्थी पर ध्यान दे। तेरी कितनी सुन्दर गृहस्थी है, हीरे-मोती से बच्चे! चाँद सी बीबी! और वह ऐसा सीधा सादा इंसान बना हाथ जोड़ हाँ-हाँ कहता रहा कि आरती को बेहद कोफ्त होती रही कि देखो, कितना नाटकबाज है ये। क्यांकि वह उस शख्स की रग-रग से वाकिफ हो चुकी थी। उसे अच्छे से पता था कि आलम सुधरने वाले इंसानों में से नहीं है!

मामा चले गए। जाते-जाते उन्होंने आरती के सिर पर हाथ फेरा और कहा कि- तुझसे ही उम्मीद है, इस घर में कुछ बदला तो तू ही बदल पाएगी। कभी कोई भी तकलीफ हो तो हमें बताना। सुन कर वह अपराध-बोध से भर गई कि- कितने इंसानों को धोखा दे रही हूँ! ये लाखों का कर्ज क्या कभी कोई पटा पाएगा! उसे अच्छा नहीं लगा। उसने सोच लिया कि अब इस घर में कभी नहीं आएगी। आलम से भी एक दिन पिण्ड छुड़ा लेगी। उसे उससे नफरत हो गई थी।

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