Kimbhuna - 10 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | किंबहुना - 10

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किंबहुना - 10

10

उसे पता था कि मैं आलम से प्यार नहीं कर सकती पर अगर उसका ये अत्याचार, गाली-गलौज, मार-पिटाई, काम न करना; कुछ आदतें सुधर जाएँ तो किसी तरह जी लिया जाए! बहुत समझाने के बाद दो एक दिन ठीक रहता, पर जहाँ कोई ऐसी बात हुई जो उसे पसन्द न आए तो फिर वो अपने असली रूप में आ जाता।

जिस-जिस से आलम ने पैसे उधार लिए थे, वे पैसा माँगने के लिए उसे ढूँढ़ते रहते। इसी डर से उसने दुकान खोलना बंद कर दिया तो अब आय का कोई साधन नहीं बचा। घर में दो समय का खाना मिलना कठिन हो गया। ऐसे में कर्ज चुकाना, ब्याज चुकाना कहाँ से होता! शहर में जितने रिश्तेदार थे, उनसे पहले ही रुपये ले लिए गए थे।

तब एक दिन आलम ने उससे कहा कि- जाओ, अपनी मम्मी से दस हजार रुपए माँग लाओ। सुन कर उसे गहरा धक्का लगा। वह याद करने लगी कि ये वही इंसान है जो मुझे कहता था कि मैं तुम्हारी मदद करूँगा। घर परिवार का ध्यान रखूँगा! आज ये उल्टा उन्हीं से पैसे माँगने की बात कर रहा है। पर उसके पास मम्मी से पैसे माँगने के अलावा कोई चारा नहीं था। माँगती या आलम का गुस्सा सहती।

तब वह मम्मी के घर गई। हालाँकि अब मम्मी के घर जाना उसे बिल्कुल अच्छा न लगता। कारण कि एक तो उसका चेहरा दर्द की कहानी कह देता। दूसरे उसे रोज-रोज वहाँ जाने में शर्म आती। वहीं जाकर खाना खाना पड़ता। घर में जो कुछ होता, आलम की माँ और उसकी बहन को दे देती। आलम तो हमेशा बाहर ही खाता। रह जाती वह, सो मम्मी के घर पहुँच जाती। वहाँ जब खाना खाया जाता तो मौके पर होने से उसे भी खाना पड़ता। कभी-कभी भूखे रहते हुए भी कह देती कि अभी खाकर आई हूँ। जबकि घर पर इतना कम खाना रहता कि वह नहीं खा पाती।

एक तो रोज-रोज खाना, ऊपर से पैसे माँगने का साहस कैसे जुटा पाती? तीन दिन आलम को टाला कि आज बात नहीं हो पाई, आज कुछ काम आ गया मम्मी व्यस्त थीं, आज मेहमान आ गए तो उनके सामने कैसे माँगती! पर उसे पता था कि ये भी मुझे करना ही है। तो चैथे दिन उसने दृढ़ निश्चय किया कि आज बात करूँगी।

पर बात करने की हिम्मत जुटाने के प्रयास में वह कुछ भूमिका बनाती, अजब-गजब हरकतें करती, पर हिम्मत जवाब दे जाती। यों तीन-चार बार भूमिका बाँधी जो बँधी नहीं। पर आखिर में उसे लगा कि माँगने तो होंगे ही! बिना माँगे काम चलेगा नहीं...।

पर उसे समझ में न आता कि कहाँ से शुरू करूँ, क्या कहूँ?

हर बार वह कुछ कहने की कोशिश करती पर हर बार मुँह से बात न निकलती, सिर्फ हवा निकल कर रह जाती। वह मम्मी के साथ-साथ, उनके आगे-पीछे फिरने की कोशिश करती। पर हर बार हिम्मत जवाब दे जाती। आखिर में एक दिन एकान्त पा, उसने अतिरिक्त साहस जुटा, जैसे कोई यकायक बुक्का फाड़ रो पड़े...ऐसे ही पूरा दम लगा कर बोल दिया, मम्मी कुछ पैसे चाहिए।

वे अपना काम करते हुए बोलीं, कितने?

पर वह बोली नहीं, कातर नजरों से देखती रही तो उन्हें लगा कि उसे अपने खर्च के लिए दो-चार सौ रुपए चाहिए होंगे। बोलीं, ठीक है, जाते समय दौसौ रुपए आलमारी से ले लेना।

सुन कर वह दिल ही दिल में घबराने लगी कि- अब कैसे कहूँ, दो सौ नहीं, दस हजार चाहिए! और मुझे नहीं आलम को।

बड़ी देर में बमुश्किल हिम्मत जुटा कर बोली, ज्यादा चाहिएऽ।

तो मम्मी उसकी तरफ देख कर बोलीं, ज्यादा मतलब कितने?

उसने धीरे से कहा, दस हजार...!

दस हजार! इतने सारे!! क्या करना है इतने पैसों का?

उनकी आँखें फटी रह गई थीं। क्योंकि सन्तानवे में यह रकम जब सोना पाँच-छह हजार का दस ग्राम था, बहुत अधिक थी। उसे समझ नहीं आया कि क्या कहूँ! सोच कर उसने बात बनाई कि आलम को दुकान के काम के लिए चाहिए।

तो मम्मी ने गुस्से से उसकी तरफ देखा। फिर बोलीं, ये आलम कुछ काम भी करता है, ठीक से दुकान में बैठे तो खर्च चलाने लायक कमा ही ले! जब देखो, तब दुकान बंद! कहाँ घूमता-फिरता है, कुछ पता है...? कहते उनकी आँखें ऊपर की ओर टँग गईं। और उसकी बोलती बंद। उसे पता था मम्मी गुस्सा होंगी। वे आलम की हरकतों से बहुत नाराज थीं। उन्हें तो ये पता ही नहीं था कि आलम गन्दी गालियाँ बकता है, अपनी माँ को पीटता है।

उसे चुपचाप देख वे फिर बोलीं, तुमने अपनी जिंदगी खुद बर्बाद कर ली है, पता नहीं क्या देखा आलम में! मुझे तो बिलकुल पसन्द नहीं था। तुम्हें देख कर लगता नहीं कि खुश हो।

वे बहुत देर तक कुछ न कुछ कहती रहीं। कहते हुए बीच-बीच में उनके हाथों मँजते बर्तनों की खनखनाहट तेज हो जाती, कभी कम। अचानक वे गुस्से में ही बोलीं, ले लेना।

लेकिन जो डर मम्मी को था वही डर उसे भी कि कहीं आलम इसको आदत न बना ले!

मम्मी से लेकर रुपए उसने आलम को दे दिए। उसके बाद उसने उन पैसों का क्या किया- किसे दिए, नहीं दिए पूछने का साहस आरती में न था।

आलम उसे छोड़ने-लेने मम्मी के घर जाता तो शान से खाता-पीता, ज्ञान बघारता और बाद में उन्हें ही भला-बुरा कहता। आलम को दामाद होने के नाते घर में पर्याप्त मान-सम्मान मिलता था। घर से उसकी असलियत आरती ने छुपा कर जो रखी थी। उसका गाली बकना, अपनी माँ को मारना-पीटना, दूसरी औरत से सम्बंध...ये सब कोई न जानता। आरती बताने में शर्म महसूस करती, कैसे बताती, क्या-क्या बताती! इसलिए दामाद साहब का चाय-नाश्ता, खाना सब होता। और मजे की बात यह कि कुछ कमी रह जाती तो आलम बाद में उसे ताना मारने से बाज न आता। उसके भाई को गालियाँ देता।

उसे तनाव में और उखड़ी उखड़ी पा भरत हरचंद कोशिश करता कि किसी तरह वो पिछला गम भूल जाए और खुश रहे! एक दिन उसने पूछा कि- बच्चों के लिए भविष्य की क्या योजना है?

आरती प्रत्यक्ष कुछ न बोली, मन में कहती रही कि- जितनी आमदनी है, उसमें जैसी परवरिश कर सकती हूँ, कर रही हूँ। आपसे क्या छुपा है, घर में फ्रिज तक नहीं है। कपड़े रखने लोहे की एक आलमारी तक नहीं। बस किसी तरह गुजर हो रही है। प्रमोशन मिल जाता तो वेतन कुछ बढ़ जाता, अभी तो नाम के महिला अधिकारी हैं, पगार तो मजदूर जितनी ही समझो। इस पोस्ट को तो कम्पनी ने लेडीज वेलफेयर में डाल रखा है। स्वयंसेवी के तौर पर हमें जो मानदेय मिल रहा है, वही बहुत है।

भरत जब भी बलौदा बाजार जाता, बच्चों को कपड़े वगैरह दिलवा देता। मगर बाथरूम में ढंग का टब, मग्गा, बाल्टी और पटा न पाता तो झुँझला जाता। इसलिए एक बार ऐसे ही जब वह बच्चों को शॉपिंग कराने जा रहा था तो उसने कह दिया, कपड़े न दिलाना, बहुत ढेर हो गया, रखने तक को जगह नहीं! तो उसने कुछ अंदाजा लगाया और उस दिन रेश्मा को साथ ले जाकर उसकी पसंद की डबल डोर वाली स्टील की आलमारी ले आया। उसके बाद वह तो शाम को चला गया लेकिन, माँ-बेटी देर रात तक सामान अलटती-पलटती बैठी रहीं कि उसमें क्या-क्या रखें और उसे किस कौने में रखें! नए सामान से कितनी खुशी मिलती है, आरती ने पहली बार महसूस की। भरत उस दिन रुक जाता तो वह बड़ी उमंग से उसके साथ रति करती। आलमारी की लोकेशन के कई फोटो उसने उसे सेंड किए। रात में नींद ही नहीं आ रही थी, डेढ़ दो बजे तक बात करती रही।

तब बहुत तरस आया कि गरीब छोटी-मोटी चीजों को लेकर ही कितना खुश हो जाता है! दरअसल, यह उसे भी दिखता कि न सोफा है, न फ्रिज और ड्रेसिंग या डायनिंग टेबिल। अव्वल तो मकान ही बेहद छोटा है। वो पहुँच जाता है तो बाहर के बरामदानुमा कमरे में लेटना पड़ता है। अंदर एक हाॅल है, जिसमें आरती अपने बच्चों के साथ। बच्चे देर तक सोते नहीं और वो उसके पास आ नहीं पाती। यों सारी-सारी रात रतजगा होता है, क्योंकि वह आती भी तो खोलने, लगाने में लोहे का गेट आवाज करता। भरत बाहर के कमरे से बार-बार मैसेज करता तो वह बाथरूम जाने के बहाने, बच्चों से कह कर निकलती और पंद्रह-बीस मिनट में लौट जाती। इस आपाधापी में काम-वासना की पूर्ति न हो पाती। वह खीजा हुआ-सा सुबह लौट जाता और फोन पर धौंस देता कि- तुम्हें आना हो तो अब रायपुर आना। हम बलौदा बाजार न आएँगे, जब तक तुम ढंग का मकान नहीं ले लोगी।

ऐसा नहीं कि वह अच्छे मकान का महँगा किराया न दे पाता आरती को। वह मदद तो करना चाहता था, पर हर बार संकोच कर जाता कि वह कहीं उसके एहसान तले दब न जाए!

फोन पर उसकी धौंस से आरती चिढ़ गई थी और महीना भर बीत गया, रायपुर की किसी गोष्ठी में नहीं गई। लेकिन पेशी पर जाना पड़ा। भरत ताक में था, आ गया। पर वह कहने लगी कि- शाम को लौटना होगा, बच्चे अकेले हैं! तो उसे गुस्सा छूटा कि- आप इंतजाम करके क्यों नहीं आईं!

आरती बोली, पुष्पा हमारी नौकरानी नहीं...और हमें रोज रोज शरम भी लगती है, उसकी भी और बच्चों की भी।

इसमें शरम की क्या बात?

आप औरत होते तो समझ पाते!

चलो, अगले जनम के लिए माँगते हैं! उसने तनाव घटाने का प्रयास किया, मगर आज तो तुम मोहलत दो! फोन से कह दो, पुष्पा और बच्चों को, नाइट में एक जरूरी मीटिंग है, कल आएँगे!

क्या बताएँ! कौनसी मीटिंग, किसके साथ? उसने मासूमियत से पूछा।

पापा के साथ!

जिस दिन बन जाओगे, उस दिन तो कोई डर न रहेगा!

ऐइ! बन तो गए!

वो तो अपने परिवार और रिश्तेदारों के लिए बन गए। हमारी सोसायटी और...

चलो, आज ही डीएम रायपुर के यहाँ शादी का आवेदन कर दें!

सच कह रहे हो... वह उसकी आँखों में झाँकने लगी, नौकरी न चली जाएगी तुम्हारी...?

कैसे?

वाइफ ने कम्लेंन कर दी तो! कहते वह मुस्कराई।

उसे पता चलेगा, तब ना!

ऊँट की चोरी, झुके-झुके न होगी...

भरत एक निश्वास छोड़ कर रह गया। फिर एक पाँसा फेंकता हुआ बोला, तुमने रेश्मा के लिए कुछ सोचा!

क्या सोचें?

उसे किसी बोर्डिंग में डाल दो तो अभी से तैयारी शुरू हो जाएगी।

इतनी पगार तो हो! कहते वह झल्ला गई।

इतनी निराश न होओ, हम हैं तो! कहते उसने हथेली थाम कार में बैठा ली। और बस स्टैंड जाने के बजाय कार वीआईपी रोड पर आ गई तो उसने कहा, नहीं, आज हम रुक नहीं पाएँगे! इस पर भरत एक और चाल चलते हुए बोला जो उसने पहले ही सोच ली थी, रोक नहीं रहे बाबा, राममंदिर ले जा रहे! तो उसने भी सोचा, इस रस्ते आते इतने दिन हो गए, कभी दरबार में जाके मत्था नहीं टेका, तभी तो कोई काम नहीं बना!

मगर कार वहाँ से गुजर गई तब उसे खयाल आया और उसने प्रश्न किया, अरे- रुके क्यों नहीं?

चलेंगे, बाबा! नहा-धोकर चलेंगे! अभी तो हम भी सुबह से एक-दो बार बाथरूम हो आए, आप भी हो आई होंगी!

तो क्या, ये तो शारीरिक क्रियाएँ हैं, इनमें क्या अशुद्धता! कुल्ला कर लेते और चलते।

मगर कार तब तक पैट्रोल पंप के बगल से गोल्डन स्काई की ओर मुड़ गई तो वह उसकी ओर देख शरारत से मुस्कराई, समझ गए! इसी बहाने आप हमें फ्लैट पर ले आए! फिर सोचने लगी कि मर्द औरत से एक ही चीज क्यों चाहता है? यह गरज न हो तो क्या उसे कभी कुछ मिले!

फ्लैट में अब सारा सामान था, यहाँ तक कि उनके बदलने वाले कपड़े भी। एक चाबी काम वाली बाई के पास रहती जो रोज आकर सफाई कर जाती। इसलिए वे पहुँचे तो घर चमाचम मिला। वाशरूम में जाकर नहाते हुए आरती की गुनगुनाने की इच्छा हो आई। अक्सर जब मौज में होती है, फोन पर भी बात करते गुनगुनाने और कभी-कभी गाने लगती लगती है। भरत ने देखा कि मूड उसका चेंज हो गया है तो उसे तसल्ली मिली। दूसरे वाशरूम में जाकर वह भी नहा-धो लिया। फिर उसने धुला हुआ कुर्ता-पैजामा तो आरती ने सलवार-सूट पहन लिया। और नीचे आ गए तो वह गाड़ी की ओर बढ़ने लगी। मगर भरत ने आवाज देकर कहा, ऐइ! पैदल चलेंगे मंदिर तो!

ना बाबा, देर हो जाएगी! उसने घबराहट में कहा।

हो जाए, करना भी क्या!

हमें तो लौटना है! नौ तक भी पहुँच गए तो बच्चों को तसल्ली होगी।

आप पुष्पा को बोल दो।

नहीं, न!

जिद न करो, मंदिर तो पैदल ही चलेंगे, लोग पेंड़ भर कर जाते हैं, हम तो इसीलिए चाबी लेकर नहीं आए!

तब निराश हो आरती ने कार का हेंडल छोड़ दिया। वह सोच रही थी, मंदिर से जिद पूर्वक बस स्टेंड चली जाएगी और बलौदा बाजार पहुँच जाएगी। भरत उसकी बाँह अपनी बाँह में ले सड़क पर चलाने लगा। आरती की फिर वही उल्टी रील घूम उठी जब आलम ने उससे कहा था कि- तुम्हें शेख साहब से मिल कर दुकान खाली न करने की विनती करनी चाहिये। इस बार आरती ने उसकी तरफ देखा तो उसे आलम का चेहरा शेख से भी अधिक भयानक दिखाई दिया। वो घबरा कर दूसरी तरफ देखने लगी। पर थोड़ी देर बाद उसने कहा, नहीं मैं नहीं जाऊँगी।

इस पर आलम बोला, तुम्हारे एक बार बात करने से दुकान का केस वापस हो जाएगा।

आरती बोली, नहीं, मैं नहीं जाऊँगी। मुझे नहीं चाहिए दुकान।

उसने जोर दिया, दुकान तुम्हें नहीं मुझे चाहिए।

वह बोली, कुछ भी हो, मैं नहीं जाऊँगी।

और तब गुस्से में वो जाने क्या-क्या उल्टा-सीधा बकने लगा। जिसका अर्थ था कि हर महीने चार-पाँच दिन इससे भी ज्यादा गंदी रहती हो...एक बार दुकान के लिए भी हो जाओगी तो कुछ घट न जाएगा, कोई गंदगी चिपकी न रह जाएगी!

सो, सब सह लिया उसने कि तुम अपनी जुबान कितनी भी गंदी करो विधर्मी... हम अपने धर्म से न डिगेंगे! ये पहली बार था जब उसने उससे ना कहा! यह बात दीगर कि उसकी बकवास से आरती का दिमाग सुन्न-सा हो गया था। उसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था।

दो महीने तक दुकान बंद देख शेख ने ताला तोड़ कर उस पर कब्जा कर लिया और दुकान का सामान भी नहीं दिया।

मंदिर में आरती हो रही थी। घंटे बज रहे थे। शंख-घड़ियाल और न जाने क्या-क्या! खूब भीड़ थी। राम-सीता की सेवा में हनुमान खड़े थे और भक्तों की सेवा में पंडे-पुजारी। वे उनके पीछे लगे थे कि जिससे ज्यादा से ज्यादा झटक लें। भरत को उनसे लुटता छोड़ वह फव्वारे पर आ गई जहाँ रंग-बिरंगी रोशनी में आसमान फुहार से नहा रहा था। अब उसे किसी ईश्वर पर विश्वास नहीं रहा। उसे कुछ चाहिए ही नहीं। क्योंकि उसे यकीन हो चुका है कि जिंदगी उसे कुछ देगी नहीं। भरत उसे ढूँढ़़ता हुआ आया और हाथ पकड़ पूछने लगा, तुम नाराज हो!

हाँ, हमें जाना था।

तुमने पुष्पा को फोन नहीं किया?

नहीं!

ऐसी जिद क्यों? क्या हो जाता है तुम्हें कभी-कभी! जब निभाना नहीं था तो इतना प्यार बढ़ाना ही क्यों था?

हमने कब बढ़ाया, यहाँ तक तो आप ही ले आए।

सुन कर उसे सदमा लगा। फिर वह चुपचाप उसके साथ फ्लैट की ओर चलने लगा और वहाँ पहुँच उसे नीचे छोड़ चाबी उठा लाया। न उसने रोका, न वह रुकी। इस जिद में यह जरूर हुआ कि जो बस मिली, वो रास्ते में खराब हो गई और आरती साढ़े ग्यारह बजे बलौदा बाजार पहुँची। बच्चे इतनी गहरी नींद सो गए कि देर तक उठाए न उठे। न उन्होंने कुछ खाया, न उसने। रात भूख में कट गई।

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