Kimbhuna - 9 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | किंबहुना - 9

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किंबहुना - 9

9

उथल-पुथल समाप्त हो गई और अब एक शांत झील अपनी मंद लहरों के साथ हर पल मुस्कराने लगी। इसी बीच उसने कई एक सुंदर कविताएँ लिखीं और अपना खुद का एक साहित्यिक समूह बना लिया, जिसकी बलौदा बाजार के गायत्री मंदिर स्थित हाॅल में हर माह एक गोष्ठी होने लगी। साल भर के भीतर ही वह छत्तीसगढ़ी भी सीख गई थी, इसलिए गोष्ठी में सुनाने हिन्दी के अलावा छत्तीसगढ़ी में भी कविताएँ लिखने लगी। बीच-बीच में रायपुर की गोष्ठियों से भी आमंत्रण मिल जाता। यों कभी गढ़कलेवा में तो कभी वृंदावन गार्डन में पहुँचने का अवसर मिल जाता। भरत भिलाई से वहाँ अपनी कार लेकर आ जाता। उसने रायपुर में वीआईपी रोड पर गोल्डन स्काई में एक टू बीएचके फ्लैट ले रखा था। आरती से सगाई से पहले उसमें फर्नीचर भी नहीं लगा था। मगर अब तो उसने उसमें फर्नीचर के अलावा किचेन का सारा सामान और बेड, सोफा भी लगवा दिया था। यों महीने में एक दिन पेशी पर, एक या दो दिन गोष्ठी के लिए, तो दो-तीन महीने में एकाध दिन आकाशवाणी में रिकार्डिंग के लिए आना होता। दोनों का मियां-बीबी की तरह फ्लैट में रहना होता। सोसाइटी के चैकीदार और अड़ोसी-पड़ोसी उन्हें इसी रूप में जानते।

और सब कुछ अच्छा हो चुका था, तब भी आरती के मानस पटल से आलम की दारुण स्मृति न जाती। उसे सपने में भी वही घर, वे ही परिस्थितियाँ नजर आतीं। आलम को देख कर उसे आश्चर्य होता कि किस मिट्टी का बना है ये, शख्स! उस घटना से उसे कोई फर्क ही नहीं पड़ा। वह तो अब भी घोर बेशरम की तरह ऐसे पेश आता जैसे उसने कुछ किया ही नहीं। वो उसे बार-बार कहता कि तुमने शेख साहब से ठीक से बात नहीं की, नहीं तो वे दुकान हमें दे देते या फिर दुकान खाली करने के बदले बहुत सा पैसा ही दे देते।

तब वह सख्त लहजे में एक ही बात कहती कि- दुकान के लिए मैं खुद को बेच नहीं सकती। मुझे भीख माँगना मंजूर है, गिरना नहीं।

ये सुन वो नाराज हो जाता।

आलम को उसने कई बार समझाया कि दुकान को ठीक से चलाओ, सुबह जल्दी उठ कर दुकान जाओ, दिन भर दुकान में बैठो, दोस्तों के चक्कर में बार-बार दुकान बंद करके घूमने जाना छोडो, इतने से भी सब ठीक हो सकता है। पर उसकी समझ में न आता। वो इतना कामचोर था कि बिना मेहनत के पैसे कमाना चाहता।

जब भी कोई कर्ज के पैसे या उसके ब्याज के पैसे माँगने आता, तो उससे बात करने के लिए आलम हमेशा उसे आगे कर देता, खुद बात न करता। आलम की छवि इतनी खराब हो गई थी कि कोई उस पर विश्वास न करता। वो एक का कर्ज चुकाने दूसरे से कर्ज लेता फिर तीसरे से, ऐसा करते-करते उसने अपने सब दोस्त, सब रिश्तेदारों से पैसे उधार ले लिए थे।

फिर लेनदारों से बचने के लिए आलम ने दुकान जाना भी बंद कर दिया। अब घर में खाने के लाले पड़ गए। घर के कुछ सामान बेचे जाने लगे। घर में गहनों के नाम पर आरती के पास एक छोटी सी अँगूठी, और आलम की माँ के पास कान के छोटे-छोटे बुंदे थे।

आलम ने एक दिन कहा कि- दुकान का बिजली और फोन का बिल भरना जरूरी है, पैसे नहीं हैं। तो आरती ने उसे अपनी अँगूठी दे दी। इस पर वह बोला, इससे कुछ नहीं होगा, अम्मी से बुंदे माँग लो।

इस पर वह खामोश रही तो आलम ने सख्ती से कहा- अम्मी से उनके बुंदे माँग कर दो।

आरती का दिल बैठने लगा। इस डर से नहीं की बुंदे बिक जाएँगे, इस डर से कि अब आलम पर दानव सवार होगा। आरती ने उसकी ओर देखा कि शायद वो समझे कि मैं ये काम नहीं करना चाहती, पर उसने ध्यान नहीं दिया। उसने फिर कहा, अम्मी के बुंदे माँग लो। आरती ने घबरा कर कहा कि- अँगूठी से काम चला लो, बुंदे रहने दो।

इतना सुनते ही उसे गुस्सा आ गया। वो चिल्लाया, माँगोऽ!

उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी। वह दोनों तरफ से फँस गई थी। आलम को मना करने की हिम्मत नहीं और उसकी माँ से कहे तो अभी घर में हंगामा होगा। उसे पता था, कोई स्त्री अपने गहने आसानी से नहीं देती, और वो भी तब जब वो घर का आखिरी गहना हो।

उसका चेहरा दयनीय हो उठा। वह बड़ी कातर दृष्टि से आलम को देख रही थी। पर हमेशा की तरह उसे कोई फर्क नहीं पड़ा। वह गुस्से में फिर चीखा, क्या करूँ बिल न पटाऊँऽ। पैसा कहाँ से लाऊँऽ।

तब वह माँ के पास गई। माँ यह बात सुन चुकी थी, उसकी आँख से आँसू बह रहे थे। पर आरती आलम के डर से मजबूर, बुंदे माँगने गई थी। उसने कहा, दे दो बुंदे, वो मानेंगे नहीं।

माँ बोली, मेरे शोहर की आखिरी निशानी बची है, इसे भी दे दूँ!

आरती ने कहा, धीरे बोलिए, वो सुन लेंगे तो अभी आफत आ जाएगी।

पर माँ तो अब तक आलम के हाथ से इतनी मार खा चुकी थी कि उसने इस मारपीट को अपनी आदत बना लिया था। उस ढीठ बच्चे की तरह जो माँ बाप से रोज मार खा-खा कर डरना बंद कर देता है। वह बोली, नहीं- मैं नहीं दूँगी।

दो छोटे-छोटे कमरों के घर में कितना ही धीरे बात करो, सब साफ सुनाई दे जाता। आलम ने जैसे ही सुना, वो आकर गुस्से से चिल्लाया, बुंदे दे दो चुपचापऽ।

माँ ने कहा, नहीं, यही एक चीज बची है, छोड़ दे इसे। इतने छोटे से बुंदे की क्या कीमत?

दोनों का आमना-सामना देख आरती के पैर काँपने लगे, जी घबराने लगा। उसने इधर-उधर देखा, कहाँ जाऊँ! उसने फिर कहना चाहा, दे दो अम्मी... इससे पहले कि उसकी बात पूरी होती आलम आपा खो चुका था। इसी का डर था! उसने अपनी माँ की पीठ एक जोरदार मुक्का मारा और गन्दी गन्दी गालियाँ बकने लगा।

आरती ने कभी अपने घर में मम्मी-पापा को झगड़ते नहीं देखा और यहाँ इतनी गन्दी गालियाँ कि सुन कर जमीन में गड़ जाने का मन कर रहा था। उसने फिर अपनी पतली काँपती आवाज में कहा, अम्मी दे दो।

माँ चुप थी, आँसू बहाते हुए। मगर वह आलम को इस कदर देख रही थी, जैसे कह रही हो, कि और मार, मार डाल!

आरती डर के मारे कुछ समझ नहीं पा रही थी कि क्या करूँ। उसने आलम को मारने से मना किया तो वो जोर से चिल्लाया, तुम बीच में मत पड़ोऽ। उसके हाथ गुस्से से काँप रहे थे, नथुने फूले हुए थे। गुस्से में वो अजीब सा दिखने लगता, जैसे कोई भूत सवार हो गया हो! उसने दहाड़-सी मारते हुए फिर कहा, देती है कि नहींऽ! और कहते हुए पाँच-छह घूँसे और जड़ दिए।

आरती को कुछ न सूझा तो वह माँ के पास बैठ अपने हाथ से उनके कान से बुंदे निकालने लगी। माँ ने विरोध नहीं किया। वह जानती थी कि बुंदे तो देने ही होंगे।

आलम बुंदे लेकर चला गया। आरती ने माँ को दर्द और नींद की दवा दे दी। उन्हें समझाया कि क्यों उलझती हैं, पता तो था कि यही होगा।

इस पर वह बोली, ये तो मैं सालों से सहती आ रही हूँ। अब कोई असर नहीं पड़ता।

ये सब देख कर आरती हमेशा डरी-डरी रहती कि जल्दी ही आलम मेरी भी यही गति कर देगा। मैं तभी तब तक बची हूँ, जब तक हर बात पर हाँ कहती हूँ! जिस दिन ना कहूँगी मेरी दशा इससे बुरी होगी।

आलम की मार से माँ के शरीर पर नीले-काले निशान बन जाते। आलम की बहन जो उम्र में सोलह-सत्रह साल की, पर दिमाग से तीन-चार साल के बच्चे की तरह थी, वह भी डर से दुबकी रहती। पर भाई के जाते ही माँ के पास आती और उसे सँभालने का प्रयास करती। यह सब देख आरती का दिमाग अपना सन्तुलन खोने लगता। उसे फिर मर जाने के खयाल आते, पर पता नहीं क्यों ईश्वर ने इतना साहस नहीं दिया!

पेशी पर आते ही उसके दिमाग में पूरा वाक्या जीवंत हो उठता। लेकिन वही ढाक के तीन पात! तामील तो हुई नहीं! वकील बताता।

जबलपुर की तामील है, मैडम! ऐसे नहीं होगी। किसी दिन आपको खुद जाना पडेगा। कोर्ट में सम्पर्क कर चपरासी के साथ जाकर लगवाना पड़ेगी, तब लगेगी! तलाक हुई, गुजारा भत्ता हुआ, उत्पीड़न केस हुआ, या क्लेम केस, इन मामलात में यही होता है...।

भाड़ में जाए कम्पनसेशन, हमें तो डायवोर्स चाहिए...।

चाहिए, मगर अगला दे तब ना! तामील तो हो, उसका तो अता पता नहीं चलता!

तो हम क्या करें? कोर्ट करे न?

कोर्ट तब करे जब वो मिले, आपको कोशिश करना होगी, वह चश्मे के ऊपर से झाँकता।

भरत कहता, चलो! अगली बार देखते हैं।

फ्लैट पर उसके साथ वह चली तो आती मगर प्रेम लड़ाने के बजाय तनाव में बनी रहती। आँखें भरी-भरी और दिल पर एक बोझ-सा। ऐसे में रति में कोई रस न पड़ता। बिस्तर पर भी वह भरत से यही कहती कि- आलम के सामने मैं ऐसी हो जाती, जैसे- किसी बच्चे का टेडी बियर हूँ! बच्चा जब चाहे, जैसे चाहे तोड़-मोड़ दे, गुड़िया का चेहरा मुस्कुराता ही दिखता है!

और भरत बार-बार कहता, रिलेक्स प्लीज! मगर वह रिलेक्स न हो पाती! तब वह कभी-कभी झल्ला जाता कि- तुम अतीत-जीवी हो! और वह कहती, क्या करें, उन सात सालों में हमने इतना-इतना सहा है कि उसे भुलाने में सात जनम छोटे पड़ जाएँ!

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