Kimbhuna - 8 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | किंबहुना - 8

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किंबहुना - 8

8

आरती का विश्वास दृढ़़ से दृढ़़तर हो गया था कि आलम के उस औरत से सम्बंध हैं। वह नियमित उसके घर जाता है। आलम को मुझसे कोई प्रेम नहीं, यहाँ तक कि मेरे शरीर से भी बहुत गरज नहीं है! उसकी जरूरतें कहीं और पूरी हो रही हैं। और उसे तो आलम से रत्ती भर भी प्रेम नहीं था, इसलिए उसके लिए उसके साथ सोना, घर के काम निबटाने जैसा था। जिसमें कि कोई रस नहीं था। जिसे रति कहते हैं, शायद बिना प्रेम के संभव नहीं थी! और मजे की बात यह कि आलम के लिए भी वह महज रद्दी खरीदने-बेचने जैसा काम ही था। उसकी किसी हरकत में प्रेम न झलकता।

यही कारण था कि इतने दिनों बाद भरत से मन मिला तो रातों की नींद उड़ गई। उससे बात करते मन भीगने और उमगने लगा। बे-बात की बात में भी मजा आने लगा। पहले तो जरूरत थी, विपत्ति थी, इसलिए याद करती, मगर अब नीलिमा के प्रमोशन के बाद तो जब उसका वेतन अन्य मद से निकलने लगा और पोस्ट सरप्लस न रह गई। सारी चख-चख और रोज-रोज का इंस्पेक्शन, मीटिंग, विजिट भी मिट गई। वह स्वतंत्रता पूर्वक अपने मन का काम करने लगी। इसी दौरान रायपुर में एक पारिवारिक समारोह में बहन के घर जाना हुआ। आरती वहाँ रेश्मा और हर्ष को भी साथ ले गई। उस समारोह में बहन के मामा श्वसुर भरत जी और उनके भाई राम मेश्राम भी पधारे। आरती ने देखा- वे बड़े लोग थे। नंगे, भूखे विपन्न आदिवासी नहीं। आदिवासी राजा या जमींदार कहा हा सकता था उन्हें। उनके ठाटबाट ही निराले थे। चकाचैंध हो गई वह तो उन्हें देख कर। कि जब उनका आगमन हुआ, तोरणद्वार से मंडप तक रेड कार्पेट बिछाया गया। कार से उतर कर जिस पर चल कर गाजे-बाजे के साथ पहले उनकी माँ जी आईं, फिर दोनों भाई भरत और राम मेश्राम। आरती स्वयं गर्व से भर गई कि वह कितने बड़े लोगों की रिश्तेदार है! ये बड़े लोग यानी भरत जी, बलौदा बाजार स्थित उसके किराए के छोटे से मकान में हो आए हैं!

वहीं बात चली और उसकी बहन रेखा ने भरत जी की बहन शांति जी से कहा कि- मेरी दीदी आरती का अपने पति से तलाक का केस चल रहा है।

कहा इसलिए कि- मामा श्वसुर भरत जी का भी उनकी पत्नी से तलाक का केस चल रहा था।

बात भरत जी की माँ जी के कानों तक पहुँची तो उन्होंने आरती को बुला कर स्नेह से अपनी गोद में बैठा लिया। वह कुछ समझती इससे पहले ही बच्चों के लिए कपड़े और उसके लिए साड़ी आ गई। फिर तश्तरी में पान, सुपारी और दो अँगूठियाँ। एक जनानी, एक मर्दानी। मर्दानी उसकी बहन रेखा ने रखी तो जनानी भरत की बहन शांति ने। मना नहीं कर पाई और पान खिला दिया भरत ने तो रेखा ने कहा, दीदी, मामा जी को अँगूठी पहनाओ ना!

अनिर्णय की स्थिति में वह झूलती रही कुछ देर, इस बीच बहनोई केशव ने कहा कि- दीदी, अपने लिए नहीं, इन बच्चों की भलाई के लिए जोड़ लो ये रिश्ता! कल के लिए इनकी पढ़ाई, शादी का खर्च और बुढ़ापे में आपका सहारा तो हो जाएगा! हम जानते हैं कि मामा जी और आप दोनों का ही जीवन नर्क बना हुआ है, उसे संवार लीजिए! एक रिश्ता अपने मन से किया, दूसरा हमारे कहे कर लीजिए, सुखी रहेंगी!

तब रेखा ने भी ठेला और उसने झिझकते और बच्चों से आँखें चुराते हुए तश्तरी से मर्दाना अँगूठी उठा कर भरत जी की मध्यमा में पहना दी तो उसने भी तश्तरी से जनानी अँगूठी उठा कर आरती की अनामिका में डाल दी। दोनों ने एक झलक एक-दूसरे को देखा और झेंप कर मुस्कराने लगे।

दूसरे दिन वह लौट आई मगर छोटी सी रस्म अदायगी ने जैसे जीवन बदल दिया। अनायास वह सज-सँवर कर रहने लगी। रात में भी देर तलक वाट्सएप पर अंतरंग बातें होने लगीं। और रोज एक-सवा बजे वह कहती कि अब बड़ी तेज निन्नू आ रही है तो भरत एक चुम्मी की जिद करता। तब वह होंठों का सिम्बल भेज देती। और वह फोन लगा कर चुम्मी की ध्वनि निकाल देता। आने की जिद करता तो वह कहती, अभी नहीं, केस निबट जाने दो। फैसला होते ही हम आपके। मगर फैसला आसान न था। आलम सम्मन नहीं ले रहा था। तीन साल हो चुके थे। कोर्ट को उसका घर ही नहीं मिलता, और मिल जाता तो तामील न होती। अदालत के चपरासी को कभी आरोपी न मिलता। जबकि आरती हर माह पेशी पर रायपुर जाती। वकील की फीस और तलवाने की राशि जमा करवा के आती। मगर केस जहाँ का तहाँ खड़ा रहता, रत्ती भर आगे न बढ़ता।

हाँ, रायपुर में भरत जी हर माह जरूर मिल जाते। उनका केस भी वहीं चल रहा था। वे हर बार रुकने की जिद करते, मगर वह लौट आती। लेकिन बकरे की माँ कब तक प्रसाद बाँट उसे बलि से बचाती! जनवरी के शुरू में जब छत्तीसगढ़ भी ठंड का मजा ले रहा था, बिलासपुर में उसकी एक कुलीग की लड़की की शादी आ गई। भरत से रोज बात होती और वह रोज कहता कि कल आ रहा हूँ, तो उसके मुँह से निकल गया, ऐइ! कल तो हम बिलासपुर जा रहे!

क्यों?

एक सहकर्मी की बच्ची की शादी में।

बच्चे!

उन्हें हमारी हनुमान पुष्पा सँभाल लेगी।

कहाँ है शादी, कुछ पता भी है!

उसने कार्ड उठाया और फोटो डाल दिया, तो भरत ने मोबाइल के नोट्स एप में लिख लिया- गेट नं. 2 सीएसईबी कॉलोनी, तिफरा।

आरती अगले दिन दोपहर में अकेली बिलासपुर पहुँच गई। बच्चों के साथ मकान पर रहने के लिए पुष्पा आ गई थी। शादी दिन की थी और गणेश मंदिर से हो रही थी। सहकर्मी दम्पत्ति और रिश्तेदार रस्मो-रिवाज में लगे थे, उसे अपनी शादी याद आ रही थी और मन कसैला हो रहा था। इतने में वो जानी पहचानी नीली इनोवा कार आ गई जो भरत जी की थी। वह चैंकी और उसे कोई गुप्त खुशी हुई मगर दबा गई। निकट आने पर उसने बनते हुए पूछा, आपको भी यहीं आना था, कल ही तो बात हुई थी, बताया भी नहीं...।

यही सोच कर कि, आप अपनी जर्नी केंसिल न कर दें! वह मुस्कराया।

थोड़ी देर बाद वह बोला, चलो, गिफ्ट लेकर आते हैं, मैं तो सीधा चला आया।

आरती सहज ही तैयार हो गई। जैसे, अब उसे डर नहीं था कि कोई क्या कहेगा! क्योंकि- एक दिन तो सभी को पता चल ही जाएगा।

तब मयूरा मार्केट स्थित शॉपिंग कॉम्प्लेक्स से लड़की के लिए साड़ी लेने के बाद वे लोग रेस्तरां में पहुँचे, जहाँ स्वल्पाहार किया, फिर लौट कर विवाह स्थल पर आ गए। तब तक फेरे हो गए थे और विदाई की तैयारी चल रही थी। पैकेट उसे देते कि, मेरी तो पहचान नहीं तुम्हीं इसे दे दो, वह उसके कान में फुसफुसाया, एक गिफ्ट आपके लिए भी लाए हैं!

सुन कर आरती ने मुस्कान का जलवा बिखेरा और पैकेट उससे लेकर साड़ी लड़की की गोद में रख दी। थोड़ी देर बाद उसने भरत की ओर इशारा कर अपने सहकर्मी से पूछ लिया, मेरे रिश्तेदार आ गए हैं तो हम लोग अब निकल जाएँ?

मेजवान हड़बड़ी में था, उसने मुस्करा कर हाथ जोड़ दिए।

आरती ने पलट कर देखा तो भरत मुस्करा रहा था। खुशी छलकी पड़ रही थी, गोया, सब कुछ मन माफिक हो रहा था। दोनों बैठ गए तो कार चल पड़ी। मगर कॉलोनी के गेट से निकलते ही उसने कहा, अब हमें बलौदा बाजार छोड़ते हुए निकलना आप!

क्यों, आज तो वहाँ पुष्पा है, इतनी जल्दी पहुँच कर क्या करोगी?

फिर कहाँ टाइम पास करें, यहाँ से तो फुर्सत पा गए...। उसने स्पेस बनाते हुए कहा।

चलते हैं कोई बढ़िया सी मूवी देखते हैं!

मूवी नहीं,

क्यों?

जाने कैसी बनने लगी हैं, हो-हल्ला वाली, अच्छी नहीं लगतीं।

इन्कार करते उसने नाक सिकोड़ी तो भरत बोला, पुरानी देख लेते हैं, कहीं लगी हो... कह वह गाड़ी साइड में लगा, मोबाइल में सर्च करने लगा और थोड़ी देर में मंद-मंद मुस्कराता हुआ बोला, मिल गई।

उम्र के इस पड़ाव पर पहली बार अब जाकर कोई मिला था जो उसकी भावनाओं को तरजीह दे रहा था... उदास अंदाज में वह गुनगुनाने लगी, कहाँ से आप जमाने के बाद आए हैं...

भरत उसकी ओर देख मुस्कराया, अभी तो शबाब बरकरार है...

जरूर! कहते वह भी मुस्करा पड़ी, बनाने में खूब माहिर हैं, आप...।

थोड़ी देर में सिटी माॅल स्थित कार्निवल सिनेमाज में आ खड़े हुए। जहाँ इमरान खान की फिल्म बिल्लू बार्बर चल रही थी, जिसमें शाहरुख मेहमान भूमिका में था...। वे लोग ठीक वक्त पर ही पहुँचे। क्योंकि शाम का शो अब शुरू होने ही जा रहा था। चलते एक हफ्ता हो गया था, इसलिए टिकिट भी आसानी से मिल गया। खुशी-खुशी थियेटर के अंदर आ गए। तब पता चला, एक आदमी अपनी पत्नी और बच्चों के साथ जीवन को पूरा करने के लिए मुश्किल से सक्षम है। एक सुपरस्टार अपने गाँव आता है। लोगों को लगता है कि बिल्लू उस सुपरस्टार को जानता है। वे उससे मिलने के लिए आग्रह करते हैं। तब द्वापर के सुदामा और कृष्ण हाॅल में पुनर्जीवित हो उठते हैं!

ऐसे भावुक माहौल में, अँधेरे हाॅल में अपने बाजू में बैठी आरती का हाथ अनायास भरत ने थाम लिया तो वह संवेदना के अतिरेक में नहा गई। बदन हौले-हौले काँपने लगा। और जब भरत ने हाथ ऊपर उठा कर उसकी गर्दन में डाल दिया तो, भावुक आरती ने अपना सिर उसके सिर से जोड़ लिया। हाथ बढ़ा कर उसकी गोद में रख लिया।

स्पर्श-मिलन से सराबोर जब दोनों वहाँ से निकले तो रात हो चुकी थी। कार में बैठते भरत ने कहा, अब सुबह चलेंगे, तो उसने कोई उज्र नहीं किया। तब वह उसे मंगरापारा रोड स्थित होटल सिल्वर ओक में ले आया और रूम बुक कराकर लिफ्ट से वे दोनों चैथी मंजिल स्थित उस रूम में पहुँच गए, जो उनकी असली मंजिल थी। कि वे पिछले चार-पाँच महीने से इसी जानिब तो चल रहे थे जिसका उन्हें खुद भी बहुत अंदाजा न था...।

रूम में आते ही भरत ने चाय का आर्डर कर दिया, फिर उसकी बगल में सोफे पर बैठते, उससे मुखातिब होते, भावुक स्वर में कहा, सुनाओ आरती, अपनी दर्द भरी दास्तान सुनाओ, जिससे तुम्हारा जी कुछ तो हल्का हो जाए!

क्या सुनाएंँ! उसने बेहद उदासी से कहा।

फिर थोड़ी देर रुक कर कहने लगी, देख रही हूँ कि पढ़े लिखे सक्षम वर्ग में भी बेटी के वजाए बेटे का प्राथमिकता दी जाती है। मेरे ही घर को लें तो मेरे बाद एक भाई हो गया था पर शायद मम्मी पापा को एक और पुत्र पाने की अभिलाषा थी तो दो बहनें और आ गईं। बेटी का जन्म क्या सिर्फ इसलिए हुआ कि वह किसी घर की बहू बन कर मायके से विदा हो जाए! क्या उसके जीवन की सार्थकता पत्नी या माँ बनने में ही है? खूब देख लिया पत्नी बन के... वह गमगीन हो गई, आलम का दुकान मालिक जिसका नाम शेख मंसूर मोहम्मद था बहुत बड़ा आदमी था, अमीर इतना कि पूरी लाइन की बारह-पंद्रह दुकानें उसी की थीं। घर इतना बड़ा कि कोई महल हो। शायद, वह स्टेट के जमाने का रईस था। शहर के मुख्य बाजार, मुख्य सड़क क्षेत्र जहाँ लोग सड़क के किनारे एक छोटी सी दुकान लगाना भी बड़ी बात समझते, वहाँ उसकी कई दुकानें कई मकान तथा हवेली थी।

शेख, आलम से अपनी दुकान खाली करना चाहता था। आलम खाली नहीं कर रहा था तो उसने कोर्ट केस कर दिया था। केस कई सालों से चल रहा था। आलम चाहता था कि शेख केस वापस लेकर दुकान उसे चलाने दे।

सो, आलम ने एक दिन मुझ से कहा कि अगर तुम मेरे साथ चल कर शेख साहब से बात करो तो वो केस वापस लेकर दुकान हमें दे दें, शायद। दुकान का केस खत्म होने से जो पैसा केस पर खर्च हो रहा है, वह घर में काम आएगा...।

तो मुझे लगा ठीक है, अगर ऐसा हो तो अच्छा ही है! मैंने हाँ कर दी।

आलम ने उससे मिलने का समय लिया और मुझे लेकर शेख की हवेली पहुँच गया। उसने मुझे पहले ही समझा दिया था कि शेख साहब बहुत बड़े आदमी हैं, उनसे अच्छे से और अदब से बात करना है।

कहते-कहते वह रुक गई। क्योंकि दरवाजे पर नाॅक हुई तो भरत ने कहा, ले आओ! और बैरा चाय बना कर रख गया तो उसने आरती से पूछा, हाँ, फिर क्या हुआ?

चाय सिप करते आरती अतीत में गोता लगाती हुई बोली, एक बड़े से हाॅलनुमा बैठक कक्ष में हम बैठे थे। मैं, मेरे बगल की कुर्सी पर आलम बैठा था। सामने करीब चार-पाँच फीट की दूरी पर सोफे पर शेख साहब बैठे थे। आलम ने मेरा परिचय कराया, बताया कि अब परिवार बढ़ गया है...दुकान के केस में बहुत परेशानी हो रही है।

वो ऐसे ही कुछ बात कर रहा था... आरती याद करते हुए बता रही थी, मैं देख रही थी कि शेख आलम की बात ध्यान से नहीं सुन रहा, वो बार-बार मुझे देख रहा है...।

दास्तान सुनते भरत को आलम पर गुस्सा आ रहा था। उसकी मुट्ठियाँ भिंचती जा रही थीं। मगर उसके अतीत पर वह कुछ भी कहने से फिलहाल बच रहा था! क्योंकि आरती का जी पहले से भारी था।

दो पल के विराम के बाद वह बोली, कुछ मिनिट बाद अचानक आलम ने कहा, मैं आता हूँ। और इतना कह कर वो उठ कर बाहर चला गया।

कमरे में सन्नाटा छा गया। कुछ मिनिट चुप रहने के बाद शेख ने कहा, बताओ क्या परेशानी है?

मैं चुप थी। मुझे अपने पति आलम पर गुस्सा आ रहा था कि ऐसे मुझे छोड़ कर वो क्यों चला गया?

मुझे चुप देख दो मिनिट में शेख उठा और मेरे बगल की कुर्सी, जहाँ आलम बैठा था वहाँ आ बैठा! मेरी जान निकलने लगी, दिल किसी आशंका में जोर से धड़कने लगा। मुझे समझते देर न लगी कि आलम मुझे जानबूझ कर यहाँ छोड़ गया है! मेरा खून खौल उठा।

कहते उसका चेहरा तमतमा उठा। हाथ की चाय खत्म हो गई थी। भरत ने कप उसके हाथ से लेकर टेबिल पर रख दिया तो आरती उसे एकटक देखने लगी। फिर सहसा उसका स्वर आद्र हो उठा, आलम का हर अत्याचार मैंने सहन किया पर दुकान के लालच में वो मुझे ऐसे शेख को सौंप देगा, सोचा न था!

ओह! लानत है भरत ने अपना माथा पकड़ लिया।

संयत हो आरती आगे बोली, वह कितना बे-गैरत है, मैं यही सोच रही थी और इतनी देर में शेख ने अपना हाथ मेरे कंधे पर रख लिया, तो मुझे कुछ समझ नहीं आया कि क्या करूँ! पर वो और कोई हरकत देता इससे पहले ही मेरी स्त्री शक्ति ने उसका हाथ झटक दिया और उठ कर बाहर आ गई।

कमरे से निकल मैं काँपते कदमों से लगभग सौ मीटर का लॉन चंद सेकेण्ड में पार कर हवेली के बड़े गेट के बाहर आ गई। गेट के बाहर ही मेरे पति की दुकान थी। मैंने देखा वह मजे से दुकान में बैठा है। मुझे देख चैंक कर बोला, अरे बात हो गई! क्या कहा शेख साहब ने?

तो मैंने ततारोष में पूछा, तुम ऐसे कैसे किसी आदमी के पास मुझे अकेला छोड़ कर आ सकते हो?

वो बोला, नहीं ये बात नहीं, मुझे कुछ जरूरी काम याद आ गया था और फिर शेख साहब तो बहुत अच्छे आदमी हैं।

मैंने आलम को नफरत भरी नजरों से देखा, पर उसे कोई फर्क नहीं पड़ा।

कह कर वह चुप और कंधे झुका निढाल हो गई।

तब भरत ने उसे चुपचुप रोते देखा तो उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, रिलेक्स प्लीज! मैं हूँ ना! तब थोड़ी देर में उठ कर आरती वाशरूम में चली गई।

इस बीच उसने खाने का आर्डर कर दिया और बेड पर लेट कर सुस्ताने लगा।

पंद्रह-बीस मिनट में वह चैंज कर लौटी तो उसकी चूड़ियों की खनक और पायलों की छम-छम उसके दिल में गहरे तक उतर गई। उस मधुर ध्वनि को सुन कर सचमुच ऐसा लगा, मानो अनंग ने विश्वविजय हेतु दुंदुभी दे दी हो! सुबह से ही पीछा करते उस शैतान खयाल को कि वह कहीं बिदक न जाय, परे धकेल उसकी दृष्टि बरबस उस आकर्षक स्त्री से चिपक कर रह गई जिसके बाएँ गाल पर बालों की एक घुँघराली लट सपोले की तरह लहरा रही थी...। अचानक बन आए इस संयोग पर जैसे, अचानक मुस्कराती हुई वह तनिक संकोच के साथ ड्रेसिंग टेबिल की ओर बढ़ गई तो, भरत दो मिनट में आया कह कर फ्रेश होने चला गया।

लौट कर आया, तब तक खाना आ गया था।

खाने के बाद वह अपने बैग से प्रशिक्षण सम्बंधी कोई पुस्तिका निकाल पलटने लगा। दिल हौले-हौले धड़क रहा था।

पुस्तिका पर झुके उसके चेहरे को देख-देख आरती की आँखें शरारत से चमकने लगी थीं। उसने आवाज में नजाकत भरते हुए उससे कहा, लाइट बंद करो, बाबा! हमें सोना है।

सुन कर तुरंत उसने किसी आज्ञाकारी बालक की तरह उठ कर सारी बत्तियाँ बुझा दीं। मगर उनके बुझने के बाद भी खिड़कियों के परदों से कमरे में झीना-झीना प्रकाश फैल उठा। गोया शहर भर की लाइटें उस अनिंद्य सुंदरी को आज बरबस निरखने चली आ रही हों, काले गाउन में जिसका सोने-सा रूप दीपक में बत्ती की भाँति जगमगा रहा था! उस रहस्यमयी उजाले में भरत ने उसे आँखें मूँदे लेटे देखा तो धीमें से हँसते हुए पूछा, ऐइ! तुम्हें यकीन है, तुम आज सो लोगी?

सुन कर हृदय-समुद्र में भीषण ज्वार उठ खड़ा हुआ। स्याह बालों के बीच घिरा उसका उजला मुखड़ा सहसा दामिनी-सा दमक उठा। लाज से दाएँ गाल पर सुर्ख गुलाब खिल गया। और वह शर्म से मुस्कराने लगी तो भरत उसका चेहरा अपनी हथेलियों में भर अत्यंत भावुक स्वर में कहने लगा, मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ, आरती!

हम भी तो! कहते उसके सुदृढ़़ शरीर से वह लता सी लिपट गई। जिसके बाद रात छोटी पड़ गई।

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