Leela - 26 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | लीला - (भाग 26)

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लीला - (भाग 26)

उसने कहा, ‘‘डिनर का काल हो चुका है, चलो, ले लें! लौटकर आपके लिये रूम खुलवा दूँगा।’’
उसने सहर्ष हाँ में गर्दन हिला दी। सो, रूम लाक करके वे खरामा-खरामा टेरेस की तरफ़ जा रहे थे...। उसे आज पहली बार जीवन में दिव्यता का आभास हो रहा था। पर वह अपनी भावना किसी भी माध्यम से उस तक पहुँचा नहीं सकती थी। उसके सामने तो बोलने में भी गला भर आता था। इतनी कृतज्ञ तो वह शायद, ईश्वर के प्रति भी नहीं हो सकेगी, जिसने बनाया! क्या सचमुच दलितों को भी उसी ने बनाया?
टेरेस पर आकर वह अचंभित थी। ...खुले आसमान के नीचे आदमक़द केबिनों में खूबसूरत मेज़ें सजी थीं। सामने विशाल झील लहरा रही थी। चूँकि दो ही जन थे, इसलिए अपने लिये एक छोटा-सा केबिन तलाश वे एक-दूसरे के आमने-सामने बैठ गए। पर उसे अपने भाग्य पर भरोसा नहीं हो रहा था। मेज़ पर कोहनियाँ जमाए कुरसी से चिपकी भीतर ही भीतर लगभग घूम रही थी। ...कभी नीले आसमान में उड़ जाती और कभी गहरी झील में उतर जाती।
वेटर संकेत पाकर अफ़सर के ब्राण्ड की वाइन रख गया।
वह पागल-सी देखने लगी।
पैग़ बनाते हुए उसने पूछा, ‘‘तुम तो लेती नहीं होगी...?’’
‘‘नईं...ई!’’ वह हकला गई! जैसे, उसके आगे झूठ बोलना गुनाह हो! जैसे, उससे कुछ छुपाया नहीं जा सकता! और उसने जिस ढंग से पूछा था, लोकायुक्त की जाँच सरीखे खाल खेंचू अंदाज में, उसमें तथ्य को छुपाने की गुंजाइश कहाँ थी? झूठ बोलने पर मशीन जैसे धड़कनों से पकड़ लेती है...। लाल सिंह फ़ौज में जाकर सीख गया था! छुट्टी पर आया, तब रात को वही जबरन दो-चार घूँट पिला देता! वही एक गुनाह था। आँखें चुरा रखी थीं उसने।
‘‘और क्या चल रहा है?’’ अफ़सर ने पैग़ गले में उतारते हुए पूछा।
‘‘अब तो जर्नलिस्ट बनना है...।’’ कहकर वह झेंप गई।
‘‘गुड!’’ उसकी आँखों में प्रशंसा लहरा उठी। ...थोड़ी देर बाद अगला पैग़ बनाता हुआ बोला, ‘‘शौक के लिये थोड़ा-बहुत सोशल वर्क करती रहना...। पालिटिक्स तो बहुत गंदी हो गई है। डेमोक्रेसी क्राइम, करेप्शन और कास्टिज्म पर झूल रही है...।’’
पी वह रहा था और नशा उसे चढ़ रहा था! यह अक्सर होता था...। तारे गडमड होते दिख रहे थे। घबरा कर झील देखने लगती तो सोडियम लाइट से चमचमाती लहरें आँखों में भरकर रह जातीं...।
‘‘फार्म यूनिवर्सिटी से मँगाना होगा। इंग्लिश के लिये कोचिंग ज्वाइन कर लेना। थोड़ी मेहनत उठानी पड़ेगी...! ’’
टी-शर्ट और ट्राउजर में वह ताज़ा काम्पिटीटर लग रहा था...।
हवा के झकोरों में सुहावनी ठण्डक घुली थी...।
वह ज़्यादातर चुप थी, भुने हुए नमकीन काजू टूँगते हुए!...
बाटल एक तिहाई रह गई तो अफ़सर ने संकेत से बैरे को बुलाकर टिप कर दी। खाने का आर्डर लेकर वह चला गया। फिर खाना आ गया तो वह चुप लगा गया।
वे देर तक और रुक-रुक कर खाते रहे। बिना इधर-उधर देखे। वह झेंप रही थी और वह आदतन गंभीरता बनाए हुए था।
उसी दूरी के साथ लौट कर कमरे में आ गए।
गेट बंद करते ही उसे अचानक याद आ गया, ‘‘अरे! आपके लिये रूम तो खुलवाया नहीं...!’’
उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। फ़िलहाल उसका हाल उस नववधु-सा था, जिससे पूछो, माइके जाओगी? तो,हाँ। और पूछो, ससुराल रहोगी? तब भी, हाँ!
अफ़सर का सिर भारी हो गया था। और उसमें खड़े रहने की सामर्थ्य नहीं रह गई थी, शायद! धप से सोफे पर बैठ गया।
लीला दुविधा में कुरसी पर बैठ रही। ...उसके अब तक के व्यवहार में ऐसा कोई संकेत नहीं था कि वह कोई दूसरा अर्थ लगा पाती। सब कुछ स्वाभाविक और घटनाओं के वशीभूत लग रहा था। और वह अपनी ओर से पक्की थी। मगर कल को कोई और अर्थ न लगाया जाने लगे, इस बात की चिंता थी।
थोड़ी देर में अफ़सर की जैसे, फिर झक्की खुली, ‘‘क्या ख़्याल है, चलना है...नीचे काउण्टर तक चलना पड़ेगा!’’
लीला उसके हाल पर मन ही मन हँसकर, अपना बैग उठा बाथरूम के अंदर चली आई, जैसे, जो होगा, देखा जाएगा-अब...। साड़ी खोलकर फिर से अपने बैग में रख ली उसने और गाउन निकाल लिया। अलसाये चेहरे पर ठण्डे पानी के चार छींटे मार लिये। घुटनों तक पाँव और कोहनियों तक हाथ धोकर अच्छी तरह तौलिया रगड़ लिया। और फिर से तरोताज़ा होकर बाहर निकल आई।
इतनी देर में वह तेजस्वी युवा सोफे पर बेसुध सोया पड़ा मिला!
बड़ी शरम-सी लगी उसे। झिझकते-झिझकते पास पहुँची और काँपते स्वर में पुकारने लगी, ‘‘सरऽ ऐ-इ, सर!’’
महीन स्वर कान में पड़ा तो बंद पलकें कमरे की चिपकी खिड़कियों की तरह खुल गईं। ...ऊपर लाकेट झूल रहा था, बुन्दे मटक रहे थे, नाक की लोंग झिलमिला रही थी। स्याह बालों के गोलाकार शेप और येलो कलर के गाउन में वह स्वप्न-समान लगी उसे।
आँखें फिर मूँद ली!
तब उसके छोटे-छोटे बालों में उँगलियाँ डाल बच्चों-सा लाड़ करते हुए फिर जगाया उसने...जैसे, कोई ग्राहक कटिंग कराते-कराते झपक गई हो, ‘‘उठिए, सर...उठ जाइए!’’
नींद कुछ उचकी होगी! गोया, कुछ याद करने की कोशिश में आँख मलते पूछा, ‘‘क्या...है?’’
‘‘प्लीज, आप बेड पर...।’’ पीछे हटते घिघिआई वह।
‘‘नहीं-नहीं, उधर आप ही सोएँ, आप गेस्ट हैं!’’ वह अड़ गया।
अब तो कोई उपाय न था! रोनी हो आई वह। यह देख अजीब साँसत में फँस गया। झौंक में उठकर चला आया बेड पर। और वह सोफे की ओर बढ़ गई तो हैरान-सा बोला, ‘‘तुम भी यहीं लेट जाओ ना, जगह है-तो!’’
सुनकर गाल शर्म से लाल हो गए। फिर ज़हन में उसकी सजी-सँवरी स्त्री का चेहरा कौंध उठा! मगर अफ़सर ने उठकर बत्तियाँ बुझा दीं तो वह यंत्रचालित-सी अँधेरे का हाथ पकड़ बेड के एक किनारे पर लेट रही और नींद बुलाने आँखें मूँद मन ही मन गिनती गिनने लगी। तब देर बाद उबासी आई! मगर...ज्योंही झपकी लगी, अफ़सर ने करवट बदल कर हाथ सीने पर रख लिया!
सवेरा होते ही वे अपने-अपने गंतव्य के लिये तैयार होने लगे। ...उसे घर लौटना था और उसे...सचिवालय में एक ज़रूरी मीटिंग अटेण्ड करना थी।
(क्रमश:)