Leela - 11 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | लीला - (भाग-11)

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लीला - (भाग-11)

गाँव में रहना मुश्किल हो रहा था। बदनामी सिर ऊपर होने लगी थी। और...टूला को तो कोई ख़ास एतराज न था, पर अजान के टूला में पड़े रहने से अहीर थोक की नाक जड़ से कटी जा रही थी। बाप की आँखें हमेशा लाल बनी रहतीं। चचेरे भाई भी उस पर थूकते और बात-बेबात अवहेलना कर उठते। भाभी, चाची, माँ, बीवी और बहनें आँखें चुरातीं। वह वैसे भी घर में कम आता, पर जब आता तभी कलेश मच जाता। घबराकर लीला से कहता कि अब तो ये गाँव हमेशा के लिये छोड़ देने का समय आ गया है! लीला को भी उसकी बात सही लगती। उसे लगता कि हम अब कुछ भी करके इस समाज में नहीं समा सकेंगे। यहाँ से हटना ही पड़ेगा। हमारी जड़ें कट गई हैं! लेकिन गमी के बाद पहले त्योहार तक देहरी न छोड़ने का बंधन था। सावन पर पहला फेरा हो जाने के बाद वह स्वतंत्र हो सकती थी।
ऐसे विपरीत हालात में उसे एक नायाब बात सूझी कि वो हाईस्कूल कर ले! हाईस्कूल करके उसे नौकरी भी सम्मानजनक मिल सकती है! पर यह बात अचानक नहीं सूझी थी; पढ़ने का संकल्प तो उसने उसी दिन ले लिया था जब अजान ने मिडवाइफ़री का प्रस्ताव रखा था। पर तब वह अपना इरादा दबा गई थी। इसलिए अजान सिंह को लग रहा था कि फ़िलहाल उसे ऊब से बचने के लिये ये शग़ल सूझा है! सावन के बाद हम जैसे ही शहीद कालोनी पहुँचेंगे, पढ़ाई-वढ़ाई धरी रह जाएगी और एक दूसरी ही कहानी शुरू होगी...। वहाँ क्या प्रतिबंध, ठप्पे से मियाँ-बीवी बनके रहेंगे?!
लेकिन त्योहार पर आकर अचानक अजान के पिता की हालत बिगड़ गई। उसे बछिया लग गई। तुलसीदल और गंगाजल होने लगा। और उन्होंने कई दिन अधीरता में बिताए पर हालत स्थिर होकर रह गई। न उस पार, ना इस पार! शहीद कालोनी में जा बसने का उनका ख़्वाब अधर में लटक कर रह गया था। दिन ज्यों-ज्यों खिंच रहे थे, उसकी बेचैनी बढ़ रही थी। ...उसे कब्ज़ा लेना था, गृहस्थी जमानी थी, फार्म भरना था, पढ़ाई करनी थी। सिर पे कितने काम चढ़े थे...? दिमाग़ आउट हुआ जा रहा था उसका।
धीरे-धीरे क्वाँर लग गए तो अजान से उसने कहा, ‘‘तुम हमें अब अकेलेई चले जान देउ!’’

सुनकर धक्का-सा लगा। जैसे कोई, पालतू खरगोश के बाहर निकल भागने पर बिल्ली के झपट्टे की आशंका से भर जाय...। पर मजबूर था। बीमार बाप को छोड़कर उसके संग चला जाता तो कितनी नामधरई होती! लीला साहस जुटाकर अकेली ही चली आई। शहर आकर उसने एक-एक छोटा बिछिया दाब लिया और गले के लिये चेन ख़रीद ली। घरेलू यूज के लिये मेक्सी, गाउन और सलवार सूट भी। आगे-पीछे कोई नहीं था, फिर भी अपनी गृहस्थी जमाने की उसे बड़ी हौंस थी। क्वार्टर के प्रवेश कक्ष में चार कुर्सियाँ और एक छोटी मेज़ डालकर उसे बैठकनुमा बना लिया और उसी के बग़ल में लगे चैकोर रूम को जिसका दरवाज़ा बैठक में खुलता और खिड़की सड़क पर, स्टडी रूम कर लिया। उसमें एक लकड़ी की कुर्सी और मेज़ डाल ली। पढ़ाई का नशा चढ़ा था। बड़ी फ़िक्र से पत्राचार पाठ्यक्रम के अंतर्गत हाईस्कूल का फार्म भर दिया था।
सो, धीरे-धीरे लोग उसमें रुचि ले रहे थे। ...वह दरवाज़े, खिड़की पर होती तो निकलने वाले निगाहें चिपका देते और छत पर टहलती तो दूर तक के लोग आँखों को दूरबीन बनाकर देखते। देखते और आहें भरते...।
और चूँकि गाँव पास था, इसलिए खोजी उसकी तह तक बड़ी जल्दी पहुँच गए! मोहल्ले में उसकी कहानी टीवी सीरियल की तरह रिलीज हो गई। फलस्वरूप, शरीफ़ों ने अपनी औरतों के इधर रुख करने पर प्रतिबंध लगा दिया और ख़ुद इंट्रेस्टेड हो गए! इन हालात में वह यहाँ आकर जैसे, निर्वासन का दण्ड झेलने लगी...।
मन जितना टूटता, उतना ही और सामान जुटाती जाती। बैठक के पीछे वाले कमरे को बाक़ायदा बेडरूम बना लिया। डबल बेड, आलमारी, ड्रेसिंग टेबिल, सीलिंग फेन लगवा लिया उसमें। फिर टीवी और कुकिंग गैस उठा लाई। एक पेडस्टल फेन भी, जो बैठक और स्टडी को हवा दे...। पर लोग प्रभावित होने के बजाय कटाक्ष करते, ‘खसम का फण्ड ऊल रहा है!’ ऐसी बातों से डर भी लगता। शाम होते ही क्वार्टर के भीतर बंद हो जाती वह। सामने एक पुरानी धर्मशाला थी, उसमें स्थाई रूप से कुछ सट्टेबाज और शराबी अड्डा जमाए हुए थे।
उन उदास दिनों में न खाना बनाने-खाने की इच्छा होती, ना टीवी देखने और पढ़ने की...। क्वार्टर भाँय-भाँय करता और अपने ही सामान से दहशत होती उसे। लगता, बिना परिवार का जीवन भी क्या जीवन! पशु हिम्मती हैं, जो अकेले काट लेते हैं! चरने-सोने से फुरसत नहीं मिलती जिन्हें! आदमी का जी किसने बनाया? जिंदा तो जिंदा, मरे भी पीछा नहीं छोड़ते!
वह आदमी, सास और अजान में उलझी रहती। रात आधी निकल जाती तो कभी कोई अचानक किवाड़ खटखटा देता। एकदम डर जाती। पलंग से चिपकी रह जाती। खिड़की खोलकर देखना और प्रत्युत्तर देना तो दूर की बात थी। फिर शेष रात पलक से पलक नहीं लगता। न पढ़ाई में जी लगता न अतीत में। दिन भर बदन टूटता रहता।
कालोनी में भी ज़्यादा बसाहट न हुई थी। कुछ क्वार्टरों में ताले पड़े थे और कुछ में इक्का-दुक्का किराएदार बैठ गए थे। विधवा मकान मालकिनें कम ही आई थीं। जैसे, जानती हों कि अकेले रह पाना मुश्किल होगा...। और कालोनी से जुड़ा शहर का पुराना मोहल्ला कमोबेश गाँव सरीखा ही था। इसके अधिकांश लोग किसान थे और दुधारू जानवर रखते थे। मुट्ठी भर पढ़े-लिखे लोगों में वकील, नेता, नुकरिहा और उनकी बिगड़ी औलादें थीं और थे कुछ किराएदार, जिनमें अधिसंख्य उजड्ड छात्र थे।
‘वे जाने कब आएँगे! यहाँ अकेले तो बड़ी आफत है...।’ उसे भारी टेंशन रहता।
बार-बार किवाड़ों को देखती...आम की लकड़ी! कोई कस के चार लातें भी जड़ दे तो दो फँका हो जायँ! कैसे मुक़ाबला करेगी? यहाँ तो गाँव से ज़्यादा डर है। यहाँ तो कोई हाय-दई का भी नहीं है!
आशंका में दिन ग़ुज़र जाता और फिर एक डरावनी रात आ खड़ी होती। साँझ से ही पेट में जाड़ा भरने लगता। दिन में थोड़ी-बहुत आँख लगा लेती, क्योंकि रात पहरेदारी में काटनी होती...।
लेकिन उस रात बारह-साढ़े बारह के लगभग, जबकि सिनेमा का दूसरा ‘शो’ छूटा होगा, किसी ने उसके आँगन में ही कूदकर बेडरूम के किवाड़ बजा दिये तो रात के सन्नाटे में भय से उसका रक्त जम गया! और वह सन्नपातिक-सी वहाँ से उठकर बीच का दरवाज़ा लगाकर बाहर के कमरे में आ गई तो किसी ने सड़क से इतना तेज पत्थर मारा कि खिड़की का शीशा झन्न-से टूट गया। उसी से होकर आवाज़ आई, ‘‘एऽ खोल दे, ताजी करि लै, नईं तो साड़ी में ई बुस जागी!’’

(क्रमशः)