गुलदस्ता - 17

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गुलदस्ता : १७           १०७ हवाँ के झोंके से हिलनेवाले पत्तोंने, एक बात बताई है दुर से कही पहाडपर वर्षा बरसी है मुझे छु रही है उसकी ठंडक हवाँओ के साथ जो बह रही है अटक गई है कई बुंदे डालपर उन्हे छुडाओ कह रही है मैंने तो सुनली उनकी मन की बात उन्हे तो गिरना है धरतीपर क्या करेगी डाल पर बैठे उनका जहाँ जमीनपर ........................              १०८ बहोत दिनों बाद आज मैं गाव गया बचपन की पुरानी यादों के साथ खुषी से झुमता गया मन में रची थी बहोतसी कल्पनाएँ मिलूंगा बचपन