एक योगी की आत्मकथा - 15

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{ फूलगोभी की चोरी }“गुरुदेव! आपके लिये भेंट! इन छह बड़ी-बड़ी फूलगोभियों को मैंने अपने हाथों से लगाया था और इनकी देखभाल उसी ममता के साथ की थी जैसे कोई माँ अपने बच्चे की देखभाल करती है।” इतना कहकर मैंने बड़ी भाव भंगिमा के साथ गोभियों की टोकरी प्रस्तुत की।“शाबाश!” श्रीयुक्तेश्वरजी ने सस्नेह मुस्करा कर अपनी स्वीकृति प्रकट की। “अभी इन्हें अपने कमरे में ही रखो; कल एक विशेष भोज में ये काम आ जायेंगी।” कॉलेज की गर्मियों की छुट्टियाँ अपने गुरु के साथ उनके समुद्र तट पर स्थित पुरी आश्रम में बिताने के लिये मैं अभी-अभी पुरी पहुँचा था।