-"वो चुपचाप सा रिश्ता"-
वो जो चुपचाप सा रिश्ता था न,
बिना कहे बहुत कुछ कह गया।
ना कोई वादा, ना कोई दस्तख़त,
फिर भी उम्र भर का साथ दे गया।
मैंने उसे कभी रोका नहीं,
वो भी कभी पूरी तरह रुका नहीं।
हम दोनों चलते रहे अपनी-अपनी राहों पर,
मगर दिल की दिशा कभी बदली नहीं।
वो मिलना जैसे किसी पुराने ख्वाब का दोहराव था,
हर बार नया सा, फिर भी जाना-पहचाना भाव था।
मैंने उसकी आँखों में कभी सवाल नहीं देखा,
मगर जवाब हर बार उसकी ख़ामोशी में पाया।
कभी बारिश में भीगा था वो नाम लेकर,
कभी धूप में तपती ज़मीन पर चल पड़ा बेख़बर।
वो था तो हर मौसम में कुछ खास था,
उसके जाने के बाद सब कुछ उदास था।
वो मोहब्बत की तरह आया था ज़िन्दगी में,
धीरे-धीरे, बिन शोर, बिन इजाज़त।
और जब चला गया,
तो जैसे रूह का एक हिस्सा अपने साथ ले गया।
मैंने अक्सर चाँद से उसकी बातें की हैं,
तारों से उसकी मुस्कान माँगी है।
कभी हवा से उसकी खुशबू लिपटाई है,
तो कभी वक़्त से उसका एक पल उधार लिया है।
उसने कुछ भी कहा नहीं, फिर भी सब कह गया,
मेरे हर ख़ाली कोना उसकी यादों से भर गया।
अब भी जब तन्हा बैठती हूँ,
तो उसकी आँखें मन में उतर आती हैं।
कहते हैं कुछ रिश्ते मुकम्मल नहीं होते,
मगर अधूरे रहकर ही अमर हो जाते हैं।
जिन्हें वक़्त की ज़रूरत नहीं होती,
वो एहसास बनकर उम्र भर साथ निभाते हैं।
उसका जाना कोई विदा नहीं थी,
बल्कि एक नई शुरुआत थी —
अपने आप को समझने की,
अपने अधूरेपन को अपनाने की।
अब मैं शिकायत नहीं करती,
ना सवाल उठाती हूँ उसकी बेरुख़ी पर।
क्योंकि मुझे यक़ीन है,
जो सच में जुड़ा होता है, वो कभी पूरी तरह दूर नहीं जाता।
उसने शायद मेरी ज़िन्दगी में आकर
मुझे मुझसे मिलवाया था।
और जब उसने जाना चाहा,
तो मेरी आँखों में अपना अक्स छोड़ गया।
अब भी जब कोई पत्ता गिरता है,
या बारिश की पहली बूँद ज़मीन से मिलती है,
तो लगता है जैसे वो वहीं कहीं पास खड़ा है,
मेरे मौन को पढ़ रहा है, मुस्कुरा रहा है।
इसलिए मैंने उसे जाना नहीं कहा,
बस इतना कहा —
"जब भी लौटना चाहो,
मेरा दिल आज भी वहीं खड़ा है,
जहाँ तुमने उसे छोड़ा था —
बेपनाह मोहब्बत में भीगा हुआ।"
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~ समर्पित उन सभी रिश्तों को जो बिना नाम के भी ज़िन्दगी भर याद रहते हैं...
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शायद हम सबकी कहानियों में एक जैसी तन्हाई छुपी हो।
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क्योंकि मैं हर एहसास को लफ्ज़ों में बदलने की कोशिश करती हूँ..."**
-शिवांगी विश्वकर्मा