शीर्षक: चालीस पार की ये औरतें
जिंदगी की रफ्तार से भी दो कदम आगे
भागती दौड़ती सी ये औरतें
40 पार होते ही कुछ ठहरने थमने सी लगती है।
जिंदगी की आपाधापी और जद्दोजहद में
भूल चुकी अपनी पसंद और ख्वाहिशों की
उंगली पकड़ एक बार....फिर से चलने लगती है ।
हां बालों की बढ़ती सफेदी और
चेहरे की झुर्रियों से हो जाती है थोड़ा फिक्रमंद
लेकिन अब... थोड़ा फुर्सत से सजने संवरने लगती है।
हां भूलने लगती है अब वो इधर उधर रख सामान
लेकिन हो अब इन सबसे बेफिक्र
अपनी खुशियों की परवाह करने लगती है ।
यह जंचेगा यह फबेगा, इसको उसको कैसा लगेगा
इस सोच और दायरे से बाहर निकलकर
अपनी पसंद का पहनने ओढ़ने लगती है।
भीगती नहीं बात बेबात आंसुओं की बरसात में
बहती नहीं अब भावनाओं की बाढ़ में
आत्मविश्वास से अपनी बात अब रखने लगती है।
सरोज प्रजापति ✍️
- Saroj Prajapati